प्यारे बचपन
अब मुझे तू
आवाज न दे ।
क्योंकि ,
तेरी ओर देखते ही
आँखें भर आतीं हैं ।
दिल तड़फ उठता है ,
शरीर मैं ,
स्फूर्ति तो आती है ,
किंतु
कुछ क्षणों के लिए ।
तुमने
मुझे बुलाया है
अनेकों बार ,
साथ चलने को ।
पर मैं ,
विवश हूँ ,
अब मैं ,
दूर ..बहुत दूर
निकल आई हूँ ।
मेरी तो ,
परछाई भी नही मिलेगी
क्योंकि , अब मैं ,
जेठ की
दुपहरी में खड़ी हूँ ।
इसलिए ,
मेरे प्यारे बचपन !!
अब मुझे ,
आवाज न दे ।
विद्या शर्मा ....
1 comment:
ठीक लिखा है बचपन के दिन भला कौन भुला सकता है ! तभी तो कोई कहता है की आया है मुझे फिर याद वो जालिम . और कोई कहता है बचपन के दिन भी क्या दिन थे और कोई मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन . मतलब ये कि चाहे जैसे कहो सच तो ये है कि बचपन ही ज़िन्दगी का सबसे हसीं और मस्त दौर होता है .
भावों को शब्द देने के लिए बधाई दें
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