एक
रिक्तता का एहसास
मिलता है खाई से ।
खाई
गहरी हो
या संकरी
चौडी हो
या उथली ,
वसुंधरा पर हो
या फ़िर दिल पर
खाई
एक जीवन को
दो में बांटकर
हस्ती है
अरमानो से ।
खाई
अपना अस्तित्व बनाकर
स्वयं अट्टाहस करती है ,
मधुमय जीवन को नीरस कर
स्वयं इठलाती है ।
खाई ,
कभी तो दरार ही थी
पृथ्वी या दिल की दरार
भ्रम बस जो ,
विलग नही कर पते
वे ,
खाई का
अस्तित्व बना जाते हैं ।
विद्या शर्मा ...
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