हे व्योम , तुम क्या हो ?
तुम्हारा आदि कहाँ है ?
और
अंत कहाँ है ?
क्या
अग्रज तुम दधि के हो ?
गहराई असीम है ,
और
विस्तार असीम है ।
ग्रह असंख्य भरे तुममे ,
और
रत्न अनंत हैं कनिष्क में ।
रूप नही
कुछ है पयौध का
और
न ही तुम्हारा समुद्र ।
"निराकार"
क्या ब्रह्म तुम्ही हो ?
आत्मा से परमात्मा का ,
मिलन तुम्ही हो ?
हे व्योम !!!
तुम क्या हो ?
विद्या शर्मा ...
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