अन्धकार से
मैं भी डरती थी ,
दूर भागती थी
क्युकी ,
अन्ध्कार में
भयानक
आकृतियाँ दिखती हैं ।
जिससे
दिल घबराता है ।
कुछ भी
न दिखने के कारण
कलेजा मुँह को आने लगता है ।
और वह ,
सांय - सांय की आवाज़
कानों को फाड़ती है
ज़रा सी
आहट भी ,
पूरे शरीर को
उछाल देती है ।
और फ़िर
सहज होने में
वक्त लगता है ।
तुमसे दूर होने के लिए
कितने
देवी और देवताओं को
याद करती हूँ ।
किंतु क्या,
तुम जानते हो ?
की अब तुम मुझे ,
कितने प्रिय लगते हो !!
तुम्हारे आने की
कितनी अधीरता से
प्रतीक्षा करती हूँ ।
जानना चाहते हो ?
क्यों?
मैं जानती हूँ
की तुम में
ही वह शक्ति है ,
जो मुझे छिपाकर
दूसरों की नज़रों से
बचा सकती है ।
दूसरों की
तीखी,
अशिष्ट और
निर्लज्ज निगाहों से
बचा सकती है ।
झूठे आश्वासन
और
आत्मीयता से ,
अंहकार और
दर्प से
तुम्हारी शरण में ही
आश्रय मिल सकता है ।
विद्या शर्मा ...
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