Sunday, March 8, 2009

अन्धकार


अन्धकार से

मैं भी डरती थी ,

दूर भागती थी

क्युकी ,

अन्ध्कार में

भयानक

आकृतियाँ दिखती हैं ।

जिससे

दिल घबराता है ।

कुछ भी

न दिखने के कारण

कलेजा मुँह को आने लगता है ।

और वह ,

सांय - सांय की आवाज़

कानों को फाड़ती है

ज़रा सी

आहट भी ,

पूरे शरीर को

उछाल देती है ।

और फ़िर

सहज होने में

वक्त लगता है ।

तुमसे दूर होने के लिए

कितने

देवी और देवताओं को

याद करती हूँ ।

किंतु क्या,

तुम जानते हो ?

की अब तुम मुझे ,

कितने प्रिय लगते हो !!

तुम्हारे आने की

कितनी अधीरता से

प्रतीक्षा करती हूँ ।

जानना चाहते हो ?

क्यों?

मैं जानती हूँ

की तुम में

ही वह शक्ति है ,

जो मुझे छिपाकर

दूसरों की नज़रों से

बचा सकती है ।

दूसरों की

तीखी,

अशिष्ट और

निर्लज्ज निगाहों से

बचा सकती है ।

झूठे आश्वासन

और

आत्मीयता से ,

अंहकार और

दर्प से

तुम्हारी शरण में ही

आश्रय मिल सकता है ।


विद्या शर्मा ...

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