वही कूआं है यह
जो
ठिठुरती ठण्ड हो
या
पसीना टपकती गर्मी
या
कपडों के साथ
हरीर को तर करती वर्षा हो
कभी ,
घडा रखने तक को,
जगह नही मिलती थी ।
कूंए पर पहुंचकर
वृध्हा भी अपने को
जवान समझती थी ,
प्रौड़ भी खुदको
शोख और अल्हड
अनुभव करती थी ।
कौनसी ऐसी बात थी ?
कूंए पर,
पानी खींचती और
गागर में डालते समय
आधा छलकाते और
आधा छलकाते और
सीडी से उतरते समय
गिरते गिरते बचना
गिरते गिरते बचना
अच्छा लगता था ।
फ़िर बतियाना ,
किसकी सगाई हो गई ,
किसकी सास ने
बहु को मारा ,
किसकी किससे आँख मिचौली चल रही है ।
किसके लड़का हुआ है ,
किसके मायेके से
बुलावा आया है ।
अब भी ,
यह वही कूआं है
जो,
हर मौसम में,
हर दिन,
सुबह शाम
खाली ही पड़ा
पनघट पर,
किसी के आने का
बिछुओं की झंकार
झान्झानों की झनक
सुनने,
और
चूडियों की खनक का
बेताबी से
इंतज़ार कर रहा है ।
कहाँ गई वह रौनक?
कहाँ गई वह ठसक ?
जिसे देख और
सुनकर
अधेड़ पुरूष भी
अपना दिल धड़कता हुआ
महसूस करते थे ।
आज
उसी कूंए पर
खामोशी सी छाई रहती है
मानो
कूआं वनवास झेल रहा हो ।
विद्या शर्मा ...
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