भोर में
उठकर
पीसता हूँ दाने
जब , दो पातो के मध्य
पीसती हूँ क्रोध को ।
विलोती हूँ
जब दही ,
राइ से मथानी में
तब ,
मथती हूँ विचारों को ।
बनती हूँ
जब सब्जी
कडाई और कलछी से
भूनती हूँ अंहकार को ।
खिलाती हूँ
जब खाना
खिलाती हूँ प्यार और ममता को ।
सोती हूँ
जब बिस्तर पे ।
आंखों में
सुलाती हूँ अरमानो को ।
विद्या शर्मा ...
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