मैं ,
रोज ही प्रतीक्षा करती हूँ
तुम्हें भेजे पत्र के उत्तर की ।
जब तक , आशा
निराशा नही बन जाती ,
दरवाजे पर टकटकी
लगी रहती है ।
तुम्हें क्या पता ?
तुम्हें ,
कितने ख़त लिखे ,
नाराज भी हुई हूँ ,
तुम्हें मनाया भी है ।
फ़िर ,
सोचती हूँ
तुम्हें ख्याल ही न होगा ,
मैं , प्रतिउत्तर भी
लिख रही थी ,
मेरी तरह , शायद तुम भी
उत्तर की प्रतीक्षा
करती होगी ।
विद्या शर्मा ....
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