Saturday, March 7, 2009

दस्तक न दो


तन्हाई में रहने की

बड़ी मुश्किल से आदत डाली है ।

अब , दस्तक न दो ।

खिड़की और दरवाजों को

बंद रखकर ।

रोशन दान में,

परदा लगाकर

दीपक बुझाकर ,

शून्य में निहारना

अब तो अच्छा लगने लगा है ।

अब ,

दस्तक न दो ।

क्युकी ,

उबलती भावनाओ

छलकते अरमानो को

मसोस कर ,

बड़ी देर में

सहज हो पाई हूँ ,

अब,

दस्तक न दो

इस अंधेरे की

घुटन में,

सीलन भरी उबासी में

धुंधलके प्रकाश में ,

बड़ी मुश्किल से

देख पाई हूँ ।

अब,

दस्तक न दो ।


विद्या शर्मा ...

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