हाय पतंग !!!
तुम हो कितनी खुशकिस्मत ,
हम हैं खड़े ,
ज़मीन पर
तुम्हे मिली है जन्नत ।
तुम्हारा
शून्य में भटकना
कभी दाँय
कभी बाँय
और कभी ऊपर जाना
कभी , रूठना
कभी मचलना
और कभी गाना तेरा
भाया मेरे मन को ,
किंतु यह डोर ?
माजरा क्या है ?
नही आया पसंद ।
तो क्या
तुम्हे भी वही थामे है ?
जिसने मुझे भी थामा है ।
तो सिर्फ़
फर्क इतना है
हमें डोर ने नही
संस्कारों ने थामा है ।
विद्या शर्मा ...
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