दाल से टूटकर
जब
अलग हो ही गया हूँ
तो ,
कैसा पश्चात्ताप ?
और
अब क्या सोचना ?
मैं कहाँ जा रहा हूँ ?
या
कहाँ गिरूंगा ?
कहीं
नाली में गिरकर
कीचड तो नही बनूँगा ?
या फ़िर
किसी
कूदे के ढेर में गिरकर
खाद बन जाऊंगा ।
या फ़िर
विशाल समुद्र में गिरकर
विलय हो जाऊंगा ।
डरना तो
ठीक ही है
क्युकी
इस अल्प सफर में
डरती हूँ
की कहीं
आग में
गिरकर ,
अपने अस्तित्व को ही
न मिटा दूँ ?
विद्या शर्मा ...
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