Sunday, March 8, 2009

कैक्टस


कभी - कभी

कैक्टस का आभास

एक करा देता है

पल में

पुरूष भी ।

वक्त बे वक्त

चाहे अनचाहे

दुत्कार कर ।

ज्यों ,

अचानक हाथ छु गया हो

किसी कैक्टस के काँटों से

लेकिन,

आदर्शवाद

या बेबसी में

उस चुभन को

पी जाती है वह ,

कैक्टस का

स्वभाव समझकर ।

और

उस कैक्टस को

सुदर्शन बनने की चाह में

स्वयं छलनी बन जाती है ।


विद्या शर्मा ...

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