कभी - कभी
कैक्टस का आभास
एक करा देता है
पल में
पुरूष भी ।
वक्त बे वक्त
चाहे अनचाहे
दुत्कार कर ।
ज्यों ,
अचानक हाथ छु गया हो
किसी कैक्टस के काँटों से
लेकिन,
आदर्शवाद
या बेबसी में
उस चुभन को
पी जाती है वह ,
कैक्टस का
स्वभाव समझकर ।
और
उस कैक्टस को
सुदर्शन बनने की चाह में
स्वयं छलनी बन जाती है ।
विद्या शर्मा ...
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