में प्यारी गुडिया
तुम ! कितनी प्यारी हो
तुमने मुझे अपने साथ खिलाकर
मेरे प्यारे बचपन को
और भी
सुनहरा बनाया था ।
मेरे रूठने पर
मनाया था ,
मेरे रोने पर
हास्य था ।
मेरी बढती उम्र को
सहारा दिया था ।
मेरे डोली में
बैठते समय भी
मूक आशीर्वाद दिया था ।
विदाई से पहले
जब मैंने ,
तुम्हारी संदूकची खोली थी ,
तुम्हारी सदा मुस्कुराती
आंखों ने
मुझे आंसू दिए थे ।
तुम्हारे मुस्कराते लाल अधर
लरजते नज़र आए थे ।
तुम्हारा नाज़ुक हाथ जैसे
ऊपर उठता चला गया था ।
और मैं तुम्हे
संदूकची में बिछे
नर्म गद्दी पर
जो मेरी नानी ने
बनाया था ,
अश्रुपूरित नेत्रों
और
कांपते हाथो से ,
लिट दिया था उसमे ।
अपने बचपन के प्रतिरूप,
तुम्हे
छोटी बेहेना के लिए ।
उसने भी तुम्हे
मेरी तरह ही
लिटा दिया होगा ।
शायद बड़े भाई के बच्चे के लिए ।
तुम,
सभी को
मेरी तरह ही
प्यार करती हो ।
तुमने कितनो को ,
बड़ा करके
सहा है उनका वियोग ।
किंतु तुम ,
रहती हो ज्यो की त्यों ।
न कभी थकती हो
न कभी होता है
तुम्हारा काया कल्प ।
तुम देती हो
कितनो को
अनगिनत सपने ,
जो कभी
फीके नही होते ।
उनमे तो , सदा होते हैं
चाँद और सितारे ही ।
तुम मुझे बता दो
क्या ,
मैं बन सकती हूँ
तुम्हारी तरह
ममता , त्याग
और
धीरज वाली ?
विद्या शर्मा ...
No comments:
Post a Comment