Saturday, March 7, 2009

गुडिया


में प्यारी गुडिया

तुम ! कितनी प्यारी हो

तुमने मुझे अपने साथ खिलाकर

मेरे प्यारे बचपन को

और भी

सुनहरा बनाया था ।

मेरे रूठने पर

मनाया था ,

मेरे रोने पर

हास्य था ।

मेरी बढती उम्र को

सहारा दिया था ।

मेरे डोली में

बैठते समय भी

मूक आशीर्वाद दिया था ।

विदाई से पहले

जब मैंने ,

तुम्हारी संदूकची खोली थी ,

तुम्हारी सदा मुस्कुराती

आंखों ने

मुझे आंसू दिए थे ।

तुम्हारे मुस्कराते लाल अधर

लरजते नज़र आए थे ।

तुम्हारा नाज़ुक हाथ जैसे

ऊपर उठता चला गया था ।

और मैं तुम्हे

संदूकची में बिछे

नर्म गद्दी पर

जो मेरी नानी ने

बनाया था ,

अश्रुपूरित नेत्रों

और

कांपते हाथो से ,

लिट दिया था उसमे ।

अपने बचपन के प्रतिरूप,

तुम्हे

छोटी बेहेना के लिए ।

उसने भी तुम्हे

मेरी तरह ही

लिटा दिया होगा ।

शायद बड़े भाई के बच्चे के लिए ।

तुम,

सभी को

मेरी तरह ही

प्यार करती हो ।

तुमने कितनो को ,

बड़ा करके

सहा है उनका वियोग ।

किंतु तुम ,

रहती हो ज्यो की त्यों ।

न कभी थकती हो

न कभी होता है

तुम्हारा काया कल्प ।

तुम देती हो

कितनो को

अनगिनत सपने ,

जो कभी

फीके नही होते ।

उनमे तो , सदा होते हैं

चाँद और सितारे ही ।

तुम मुझे बता दो

क्या ,

मैं बन सकती हूँ

तुम्हारी तरह

ममता , त्याग

और

धीरज वाली ?


विद्या शर्मा ...

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