न,जाने को मना किया
न , बाँध कर रखा कभी ,
किंतु मजबूरी क्या थी ?
दामन तुम्हारा हम ही जकडे थे ।
बुलाकर मुझे तुम,
खो जाते हो कहीं ,
मिल जाओगे मुझे ,
तब बात करुँगी ।
दिल खोलते ही
नज़रें झुका लीं तुमने अगर
दीदार होता तो ,
जान पाते प्यार था या नफरत ।
तडफ -तडफ कर मरते रहे
मर -मर कर जीते रहे ,
आग जो लगाई थी तुमने
उसी में हम झुलसते रहे .
तुम्हारी झुकी नज़र ही
बढ़ा रही थी क़यामत ,
बरछी सी घोप दी दिल में
किसी को पता न चला .
तमन्ना थी उजाला देने की ,
जलते रहे पल -पल ,
उजाला कितना दे सकी
यह , जाना न कभी ।
विद्या शर्मा .....
1 comment:
Bahut is khubsurat rachna hai....
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