Monday, March 2, 2015

तीर्थ - यात्रा

सन १९३८ की घटना याद आती है जब बाबा दादी ने निश्चय किया कि वे तीर्थ करने जायेंगे , सभी घरवाले खुश तो थे पर दुखी भी थे क्योंकि उस ज़माने में तीर्थ करना कोई आसान बात नहीं थी , आने -जाने के साधन नहीं थे , रास्ते कष्टदाई थे , रास्ते में लूटमार भी हो जाती थी , कभी जब जंगल में कोई फंस जाता था तो , जीवन पर संकट आ जाता था , सबसे बड़ी बात थी कि उस समय किसी भी वस्तु को खरीदने के लिए पैसा नहीं होता था , अनाज से ही खरीदा और बेचा जाता था।

गांव के मुखिया को छोड़कर किसी और के पास पैसा होगा सोचना भी मुश्किल था , बाबा दादी ने जीवन भर की कमाई सात रुपये हमें दिखा दिए , फैसला कर लिया कि अब जाना ही है , घर के लोग दुखी थे क्योंकि तीर्थ पर जाने के बाद किसी का घर वापस आना मुश्किल था , रास्ते में किसी के बरांडे में , धर्मशाला में , सराय में , मंदिर के बड़े वृक्षों के नीचे ही रात गुजारी जा सकती थी , अगर रास्ता भटक जाएँ तो वापसी मुश्किल होती थी।

बाबा ने एक लोटा , दो जोड़ी कपडे , एक डोरी , एक पोटली भुने चने , कुछ आटा  और नमक बस यही सामान  था , सात रुपये अंटी में बांध लिए , गांव भर के लोग उनसे मिलने आये , घर के सारे लोग रोकर उनके गले लग रहे थे , गांव के बाहर नदी तक सब लोग उन्हें छोड़ने आये , बाबा और दादी दौनों चले गए करीब दो माह तक , सब लोग उनकी बातें करते रहे जब खेतों का काम शुरू हुआ तब बाबा दादी का स्मरण थोड़ा कम हुआ , सन्देश भेजने का कोई साधन नहीं था तो बाबा दादी की कोई खबर ही नहीं थी।

ग्यारह महीने के बाद एक दिन बाबा दादी गांव आ गए , पूरा गांव उनके आने की ख़ुशी मना रहा था , गांव भर के लोगों के लिए बाबा कुछ न कुछ लाये थे , चारों तीर्थ का प्रसाद गांव भर में बांटा गया , घरवालों ने श्री मद भागवत कथा का आयोजन किया , पूरा गांव १५ दिन तक उत्सव मनाता रहा , बाबा दादी देवता की तरह पूजे जा रहे थे , एक आदमी के साथ गांव भर के लोग जुड़े रहते थे , एकता , अखंडता चरम पर थी आज भी यही अपनापन क्यों नहीं ? तीर्थों का घूमना आसान हो गया है लेकिन आध्यात्मिकता नष्ट हो गई है लोग सिर्फ तफरी के लिए जाते हैं , लोगों का संकल्प बदलना चाहिए।

विद्या शर्मा


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