Monday, March 9, 2009

चली बयार


चली बयार कुछ ऐसी

जिया मेरा डोल गया रे ,

साथी सब झूंठे

झूंठे उनके वादे ,

जब वरपाया कहर

जिया मेरा डोल गया रे ,

रिश्ते बन गये गाली

करें दिखावा थोथा ,

आशा बनी निराशा

जिया मेरा डोल गया रे ,

सहेली बनी पहेली

फांस गले में अटकी ,

जीवन कर दिया भ्रष्ट

जिया मेरा डोल गया रे ,

दुश्मन बन गया भाई

पिता बना जंजाल ,

जीना हुआ दुस्वार

जिया मेरा डोल गया रे ।

कन्या लक्ष्मी नही रही

बन गई कलंक ,

नोचा खसोटा फ़िर बेचा ,

जिया मेरा डोल गया रे ।

कृष्ण कब उतरेंगे धरा पर

रखने को लाज ,

दर्शन की मारी मैं,

जिया मेरा डोल गया रे ।

विद्या शर्मा ....





छलिया

दिल दरिया का बहाव है
टकराता है पत्थरों से ,
काटता है बंधन
भरता है नफ़रत की जमीं ,
बुझाता है ,
प्यास चाहत की ।
छलिया है वो ,
चाँद तारे लाने की
बात न करता ,
मांग सितारों से भरूँगा
न , कहता कभी ।
ऐसे , महबूबा को न
बहकाता कोई ,
छल कर सिमटता है ,
बाँहों के आस -पास
फरेबी !!
समंदर न बन ।
विद्या शर्मा ....

औरत


औरत कभी तवायफ नही होती

बेबसी मजबूर करती है ,

किसी को क्या पता ?

उसकी मुस्कान ,

एक पल में,

कितने आंसू पीती है ।

उसने , वही किया जो चाहा

किंतु , वह कभी नही हुआ

जो चाहा ।

उसके अरमान बादलों से

घुमड़ते हैं ,

तूफानों की उथल -पुथल

विनाश कर जाते हैं ।

जिन ख्वावों को

उम्र भर देखती रही वो ,

उसका होने से पहले ही

चुरा ले गया कोई ।

आग के पास

बुलाता था , बड़ी आरजुओं से

जब जलने लगा दामन

तो , बुझाया भी नही ।

विदाई न लो मुझसे

जुदाई का आलम पता है मुझे ,

इसीलिए चाहती हूँ मैं,

विदा कर दो मुझे ।

विद्या शर्मा ....




रहस्य


भविष्य एक रहस्य है

अतीत एक बंद किताब ,

वर्तमान खुला पृष्ठ है

यह ग्रन्थ किसने लिखा ?


रूप खींच लेता है पल भर में

गुण धीरे -धीरे खींचते हैं ।


मिल जाता है बहाना जीने के लिए ,

मिल ही जाएगा मौका मरने के लिए ।


हर कही सुनी बात

हकीकत नही होती ,

नजारा कुछ और ही होता

अगर हकीकत जानता कोई ।


चमन में बहार आती नही

आती है बहार वीराने में भी ,

दिल का दरिया भरा हो

तो जेठ भी सावन हो जाता है ।


हम तो उन्हें साथ लेकर ही

चले थे शबाबये महफ़िल में ,

या करें इस किस्मत का

वो हमें , छोड़ आए शमशान में ।


अपने रुख से परदा हटाया कभी

बेरुखी तुम्हारी ही बेपर्दा कर गई ,

बेआवरू करने की आदत है तेरी

पर , रूवरू तो हो जा मेरी ।


विद्या शर्मा .....


बौछार


फूलों की बौछार

मन को महकाए ,

काँटों की बौछार

तन को दुखियाये ,

वर्षा की बौछार

जग स्पंदित कर दे ,

स्वरों की बौछार

भावों को झंकृत कर दे ,

शब्दों की बौछार

दिल ,बिखरा दे ,

प्यार की बौछार

मृत को जीवन दे दे ।


विद्या शर्मा ....


तुम


न,जाने को मना किया

न , बाँध कर रखा कभी ,

किंतु मजबूरी क्या थी ?

दामन तुम्हारा हम ही जकडे थे ।


बुलाकर मुझे तुम,

खो जाते हो कहीं ,

मिल जाओगे मुझे ,

तब बात करुँगी ।


दिल खोलते ही

नज़रें झुका लीं तुमने अगर

दीदार होता तो ,

जान पाते प्यार था या नफरत ।


तडफ -तडफ कर मरते रहे

मर -मर कर जीते रहे ,

आग जो लगाई थी तुमने

उसी में हम झुलसते रहे .


तुम्हारी झुकी नज़र ही

बढ़ा रही थी क़यामत ,

बरछी सी घोप दी दिल में

किसी को पता न चला .


तमन्ना थी उजाला देने की ,

जलते रहे पल -पल ,

उजाला कितना दे सकी

यह , जाना न कभी ।

विद्या शर्मा .....




खाली ख़त


प्रियतम का पत्र मिला ,

जाने क्या -क्या

लिखा होगा ?

प्यार की बातें ,

गिला शिकवा

नाराजगी या

शिकायत ,

मेरे रूठकर चले आने पर

मनुहार या

जल्दी आने की

रट ।

होली के रंग में रंगा

यादों का समंदर

या , जागते अरमानों का पैगाम ,

सोते सपनों का संसार ,

या, आरजुओं का सैलाव ।

इसी उधेड़ बुन में

पत्र छिपाए रही ।

रात के सन्नाटे में ,

लैंप के पास ,

साँस रोककर

कांपते हाथों से जब

पत्र खोला तो ,

हतप्रभ रह गई ।

लिखा हुआ कहाँ गया ?

न जाने , प्रियतम ने

क्या -क्या लिखा होगा ?

रोज ,

संदेश वाहक

की राह देखी जाती होगी ।

खाली ख़त का

क्या जबाव दूँ ?

विद्या शर्मा .......

.


पत्र राधा का


सावरा ,

कान्हा ,

चितचोर,

माखनचोर ,

हे मोहन !!

नीलकमल के सदृश्य इन

चरणों पर ,

मस्तक रखकर

राधा का ,

प्रणाम स्वीकारो ।

अब आगे क्या लिखूं,

हे गोविन्द !!

इस ,

बावरी राधा के

मन की व्यथा

तड़प और पुकार ,

क्या

तुम से छिपी है ?

मेरी

विवशता भी

हे माधव !!

क्या

तुमसे छिपी है ?
हे मधुसूदन !!

मेरे

दिल को तो ,

तुमने

चुम्बक की नाइ

दिल से चिपका लिया है ।

हे गोपाल !!

तुम्हें पत्र लिखती हूँ ,

राधा बनकर ,

और पढ़ती हूँ

कृष्ण बनकर ।

हे मुरलीधर !!

पत्र का जबाव देती हूँ ,

राधा बनकर ।

हे प्राण !!

मेरे पास इन पत्रों का

कोई हिसाब नहीं ।

हे परमानन्द !!

अगर कोई ,

ख़त तुम्हारे पास हो ।

तो उत्तर जरूर देना ।

हे स्याम !!

इंतजार में ,

तुम्हारी सखी ।

विद्या शर्मा ......

फिसलन

फिसलना भी कला है ।
तजुर्बे की दरकार है ।
फिसलते ही पैर के
प्लास्टर से ही खैर है ।
फिसल जाए दिल तो
बनादे उसे दीवाना ।
फिसल जाएँ आँखें ,
तो बना दे उसे
परवाना ।
अगर जीभ फिसली तो ,
मीठी - तो बालूशाही जैसी ,
कड़वी- तो तलवार या कटारी जैसी ।
जीभ की फिसलन ही
बना लेती है
कभी अपना
जीभ की फिसलन ही
बना देती है
पराया ।
फिसलना सबका
दर्दीला है ।
प्यारा भी है ,
नकारा भी है ।
फिसलन भी एक कला है ,
एक चमत्कारी बाला है ।

विद्या शर्मा ...

हिन्दी का हिंडोला

कबीर की बंसी से उलट जाइये ।
रहीम के दोहों में
उलझ जाइये ।
तुलसी के मानस में
गोते लगाइए ।
सूर की कुटी में
हठ आसन लगाइए ।
या
मीरा के एक तारा के
तार झंकाइये ।
महादेवी के अतीत में
खो जाइये ।
या
रसखान के ब्रिज में
रंग जाइये ।
प्रसाद के आंसुओं में
बह जाइये ।
या
जायसी के सागर में
डुबकी लगाइए ।
बिहारी की नाइका को
पहचानिये ।
देखलो
हिन्दी के प्रेमियों
हिन्दी के हिंडोले में
ज़रा तो बैठ जाइये ।

विद्या शर्मा ...

वक्त


बात तो वक्त की है ।

वक्त और बेवक्त की है ।

जीवन में,

जान में,

जहाँ में ,

दरकार है तो बस

वक्त की ।

बात इतनी सी है जब

पड़ी नज़र वक्त की

हम् पर

तब ई थी बहार

सब पर

कलियों,

भंवरों

और फूलों पर ।

बात तो यह भी है

की जब ,

उठ गई नज़र

वक्त की ,

दिल दिमाग

झकझोर दिया था ,

उमंगों,

हसरतों,

अरमानों

को तोडा ।

आते जाते इस वक्त को,

बाँधा है किसने

बंधन में

रुकता नही है

ख्वाब सा

वक्त आएगा

फ़िर

इंसान का ।


विद्या शर्मा ...

बांसुरी


हे कृष्ण

तुम्हारी बांसुरी में

वही, अनहद

एक नाद है ?

या फ़िर

सारे नादों को

समां लिया है ?

एक अनहद

चेतन को

जड़ बना देता है ।

पति व्रताओं को

चंचल बना देता है ।

वाचाल को

मूक बना देता है ।

प्रकृति को

स्थिर बना देता है ।

तुम्हे क्या पता?

क्या क्या न कहा ?

क्या क्या न सुनाया ?

तुम्हारी उस

बांसुरी के सुर ने ।


विद्या शर्मा ...

खामोशी

उसकी खामोशी अच्छी है
किंतु ,
किसे पता है
उसकी खामोशी में
कितने ज्वारभाटे दबे हैं
कितने,
तूफानों को समेटा है ,
कितने,
विचारों को नाकारा है,
कितने,
अरमानो को दफ़न किया है
कितने ,
रिश्ते नातों को तोडा है
कितने ,
बलिदान और
त्याग किए हैं ,
कितने,
बन्धनों को खोया है ।
कितनी
आशाओं का द्वार
बंद किया है ।
कितनों का प्यार
छिपाया है ,
फ़िर भी
उसकी खामोशी
अच्छी है ।

विद्या शर्मा ...

कूआं


वही कूआं है यह

जो

ठिठुरती ठण्ड हो

या

पसीना टपकती गर्मी

या

कपडों के साथ

हरीर को तर करती वर्षा हो

कभी ,

घडा रखने तक को,

जगह नही मिलती थी ।

कूंए पर पहुंचकर

वृध्हा भी अपने को

जवान समझती थी ,

प्रौड़ भी खुदको

शोख और अल्हड

अनुभव करती थी ।

कौनसी ऐसी बात थी ?

कूंए पर,

पानी खींचती और

गागर में डालते समय
आधा छलकाते और

सीडी से उतरते समय
गिरते गिरते बचना

अच्छा लगता था ।

फ़िर बतियाना ,

किसकी सगाई हो गई ,

किसकी सास ने

बहु को मारा ,

किसकी किससे आँख मिचौली चल रही है ।

किसके लड़का हुआ है ,

किसके मायेके से

बुलावा आया है ।

अब भी ,

यह वही कूआं है

जो,

हर मौसम में,

हर दिन,

सुबह शाम

खाली ही पड़ा

पनघट पर,

किसी के आने का

बिछुओं की झंकार

झान्झानों की झनक

सुनने,

और

चूडियों की खनक का

बेताबी से

इंतज़ार कर रहा है ।

कहाँ गई वह रौनक?

कहाँ गई वह ठसक ?

जिसे देख और

सुनकर

अधेड़ पुरूष भी

अपना दिल धड़कता हुआ

महसूस करते थे ।

आज

उसी कूंए पर

खामोशी सी छाई रहती है

मानो

कूआं वनवास झेल रहा हो ।


विद्या शर्मा ...

Sunday, March 8, 2009

कैक्टस


कभी - कभी

कैक्टस का आभास

एक करा देता है

पल में

पुरूष भी ।

वक्त बे वक्त

चाहे अनचाहे

दुत्कार कर ।

ज्यों ,

अचानक हाथ छु गया हो

किसी कैक्टस के काँटों से

लेकिन,

आदर्शवाद

या बेबसी में

उस चुभन को

पी जाती है वह ,

कैक्टस का

स्वभाव समझकर ।

और

उस कैक्टस को

सुदर्शन बनने की चाह में

स्वयं छलनी बन जाती है ।


विद्या शर्मा ...

अन्धकार


अन्धकार से

मैं भी डरती थी ,

दूर भागती थी

क्युकी ,

अन्ध्कार में

भयानक

आकृतियाँ दिखती हैं ।

जिससे

दिल घबराता है ।

कुछ भी

न दिखने के कारण

कलेजा मुँह को आने लगता है ।

और वह ,

सांय - सांय की आवाज़

कानों को फाड़ती है

ज़रा सी

आहट भी ,

पूरे शरीर को

उछाल देती है ।

और फ़िर

सहज होने में

वक्त लगता है ।

तुमसे दूर होने के लिए

कितने

देवी और देवताओं को

याद करती हूँ ।

किंतु क्या,

तुम जानते हो ?

की अब तुम मुझे ,

कितने प्रिय लगते हो !!

तुम्हारे आने की

कितनी अधीरता से

प्रतीक्षा करती हूँ ।

जानना चाहते हो ?

क्यों?

मैं जानती हूँ

की तुम में

ही वह शक्ति है ,

जो मुझे छिपाकर

दूसरों की नज़रों से

बचा सकती है ।

दूसरों की

तीखी,

अशिष्ट और

निर्लज्ज निगाहों से

बचा सकती है ।

झूठे आश्वासन

और

आत्मीयता से ,

अंहकार और

दर्प से

तुम्हारी शरण में ही

आश्रय मिल सकता है ।


विद्या शर्मा ...

राही


राही

जब तुम चलते हो

तब ,

तुम्हारे आगे पीछे

दांये बांये ,

कितनों को

और

कहाँ तक

साथ रखते हो ?

हे राही ॥

क्या तुम्हे पता है ?

यहाँ तक ,

साथ चलने वाला साथी

अब किस ,

रास्ते पर जायेगा

और कहाँ जायेगा ?

अभी तो ,

हे राही !!

तुम्हे कितने राही मिलेंगे

और तुम ,

उन्हें

कहाँ कहाँ तक

छोड़ते रहोगे ।

इस रास्ते पर

तुम्हारा ,

क्षणिक साथी

अपने पिता से

रूठकर या

प्रियतमा से

रूठकर चला है ।

या ,

अपनी बेरोज़गारी दूर करने,

किसी ठौर की तलाश में

जा रहा है ।

या ,

किसी का मातम मनाने ,

किसी विवाह में

शरीक होने ,

या

प्रेयसी को अपनी

वरिष्ठ भुझाओं में

समेट कर

आत्मसात करने जा रहा है ।

अरे !

तुम तो ,

इन सबसे बेखबर हो ।

क्यूंकि ,

तुम भी ,

किसी के

क्षणिक साथी हो

सोचो इस

क्षणिक मिलन और

बिछोह को

कब तक

सहें करते रहोगे ।

तुम भी तो

किसी के

क्षणिक साथी हो ।

और

राही हो ।


विद्या शर्मा ...

शिकवा

शिकवा तो है ,
क्या ?
परायों से ,
नही ,
उनसे तो हो नही सकता ।
शिकवा तो होता है ,
केवल अपनों से ।
अब
उनसे क्या शिकवा जो
अपने तो थे ,
अब अपने नही हैं ।
अब वे पराये हैं ।
शिकवा,
उनसे तो कतई नही , जो
अब तक ,
हुए ही नही अपने ।
शिकवा उनसे है ,
जो अपने हैं ,
जो हमराज हैं ।
जो हम वतन हैं और
जो
हमसफ़र
और
हम विचार हैं ।

विद्या शर्मा ...

एहसास


एहसास एक अनुभूति है

स्पर्श की

सुखद, सुंदर

मधुर है ।

रसमय है ,

कविता है

और

काव्य है ।

एहसास

एक डरावना ख्वाब है ,

नज़रों का ।

टेडी भ्रकुटी

फैली हुई पुतलियों

और

तने हुए नथुनों का ।

ठहरे हुए पलकों

भिंचे हुए दांतों

और

खुले हुए होंठों का ।

एहसास प्यास है

किसी के एहसान का ।

मैत्री है

कृतघ्नता है

और

कर्तव्य है

आदर्श है ,

है

और

जज्बा है ।

एहसास एक अनुभव है

छूअन का ,

चुभन ka

और

बंधन का ।

आशाओं का

और

चितवन का ।


विद्या शर्मा ...

डगर


सामने

पेड़ों के झुरमुट में

बनी झोपडी

और

बैलों से घूम घूम कर

पानी निकालने वाला रहंट ,

एक पतले पेड़ की दाल से

बंधी बकरी

और उसके तीन बच्चे ,

एक घने वृक्ष के नीचे

खरहरी खाट पर

घुटनों तक ,

मटमैली धोती पहने

लेटा है कोई ।

उसकी खिचडी हुई दाड़ी

और

चेहरे की

सलवटें ही

बताती हैं

उसकी उम्र ,

माथे की लकीरें

उसकी ,

अनुभवता और प्रौड़ता को

उजागर करने में

ज़रा भी

नही हिचकिचाती ।

वहीँ ,

कुछ दूरी पर ,

जाने वाली पगडण्डी ,

थोडी दूर तक तो

दिखाती हैं

फ़िर ,

खेतों मेडों

इधर उधर उगे

झाडों

और

बढती हुई फसल

उस

पगडण्डी को ,

आंखों से

ओझल

करके ही सुख मिला होगा ।

उनको क्या पता ,

उस पर चलने वाला

कहाँ और क्यूँ

जा रहा है ।

हर

डगर का

कहीं न कहीं

विलय है ।

पर

अंत नही ।


विद्या शर्मा ...

टूटा पत्ता


दाल से टूटकर

जब

अलग हो ही गया हूँ

तो ,

कैसा पश्चात्ताप ?

और

अब क्या सोचना ?

मैं कहाँ जा रहा हूँ ?

या

कहाँ गिरूंगा ?

कहीं

नाली में गिरकर

कीचड तो नही बनूँगा ?

या फ़िर

किसी

कूदे के ढेर में गिरकर

खाद बन जाऊंगा ।

या फ़िर

विशाल समुद्र में गिरकर

विलय हो जाऊंगा ।

डरना तो

ठीक ही है

क्युकी

इस अल्प सफर में

डरती हूँ

की कहीं

आग में

गिरकर ,

अपने अस्तित्व को ही

न मिटा दूँ ?


विद्या शर्मा ...

बिन मांझी की नाव


एक नाव ,

नदी के बीच ,

उफनती , झ्गियाती

नदी में ,

भंवर से कुछ ही दूर ,

शायद ,पलभर में

अपने भीतर

स्याह काली गहरे में ,

खींच ले जाती ।

जिसमें वह बैठी है ।

लहरों के वेग को

सहन करती ,

थपेडों को झेलती ,

शून्य में निहारती हुई ,

अब , उसे

परमात्मा ही

दिखाई देता होगा ।

भंवर की विराटता

उसे ,

जिन्दगी का रहस्य

समझा चुकी होगी ।

विद्या शर्मा .....

काँटा


काँटा

बबूल का हो

या गुलाब का

काँटा

शब्दों का हो

या निगाहों का

काँटा , चुभता है।

पाओ में चुभता है ,

आँख में चुभता है ,

और दिल में चुभता है ।

काँटों से पूर्ण जहाँ में ,

जीवन को पूर्ण करने ,

जो,

मंजिल बनी थी मेरी

वह काँटों भरी गली थी ।

चाहे अनचाहे

चलते रहे उसी पर ,

चौराहे से

जो पथ गया था ।

हर मोड़ पर गली के

कांटे बिछे हुए थे ,

चाह अगर

कभी भी

त्याग उस गली का

कोशिश भी उलझी

कंटकों में ।


कंटकों ने

मुझे भी

काँटा बना दिया ।


विद्या शर्मा ...

दिनचर्या

भोर में
उठकर
पीसता हूँ दाने
जब , दो पातो के मध्य
पीसती हूँ क्रोध को ।
विलोती हूँ
जब दही ,
राइ से मथानी में
तब ,
मथती हूँ विचारों को ।
बनती हूँ
जब सब्जी
कडाई और कलछी से
भूनती हूँ अंहकार को ।
खिलाती हूँ
जब खाना
खिलाती हूँ प्यार और ममता को ।
सोती हूँ
जब बिस्तर पे ।
आंखों में
सुलाती हूँ अरमानो को ।

विद्या शर्मा ...

खाई

एक
रिक्तता का एहसास
मिलता है खाई से ।
खाई
गहरी हो
या संकरी
चौडी हो
या उथली ,
वसुंधरा पर हो
या फ़िर दिल पर
खाई
एक जीवन को
दो में बांटकर
हस्ती है
अरमानो से ।
खाई
अपना अस्तित्व बनाकर
स्वयं अट्टाहस करती है ,
मधुमय जीवन को नीरस कर
स्वयं इठलाती है ।
खाई ,
कभी तो दरार ही थी
पृथ्वी या दिल की दरार
भ्रम बस जो ,
विलग नही कर पते
वे ,
खाई का
अस्तित्व बना जाते हैं ।

विद्या शर्मा ...

Saturday, March 7, 2009

नीड़

तिनके ही तिनके
आड़े और तिरछे
आशाओं और उम्मीदों के ,
अतीत और स्मृतियों के
तिनको से बनता है नीड़ ।
अपनों और परायों के
नातों और रिश्तों से
प्यार और स्नेह के
घृणा और नफरत के
तिनको से बनता है नीड़ ।
काली सन्नाटेदार रातो के
सुनेहेरी भोर की किरणों के
तपती दुपेहेरी की तपन के
और सांझ के ,
धुंधलके के
तिनको से बनता है नीड़ ।

विद्या शर्मा ...

उत्तर की प्रतीक्षा


मैं ,

रोज ही प्रतीक्षा करती हूँ

तुम्हें भेजे पत्र के उत्तर की ।

जब तक , आशा

निराशा नही बन जाती ,

दरवाजे पर टकटकी

लगी रहती है ।

तुम्हें क्या पता ?

तुम्हें ,

कितने ख़त लिखे ,

नाराज भी हुई हूँ ,

तुम्हें मनाया भी है ।

फ़िर ,

सोचती हूँ

तुम्हें ख्याल ही न होगा ,

मैं , प्रतिउत्तर भी

लिख रही थी ,

मेरी तरह , शायद तुम भी

उत्तर की प्रतीक्षा

करती होगी ।

विद्या शर्मा ....

विरहणी यमुना


उद्धव ने गोपियों को

जब ज्ञान दिया

निराकार का ,

तब , गोपियाँ उद्धव पर

बरस पड़ीं थीं ।

उसी प्रकार

यमुना !!

तुम भी ,

कृष्ण के वियोग में

उफान रही हो ।

अपनी व्यथा को

उफनते झागों के मध्यम से

कृष्ण तक ,

पहुँचाना चाहती हो ।

बीच -बीच में पड़ते भंवर

तुम्हारी तड़फ का

वर्णन कर ही देंगे ।

गोपियों की तरह

तुम्हें भी ,

किसी माध्यम की जरूरत नही है

क्योंकि ,

यह बरसात ही

तुम्हारी व्यथा की गाथा

कहने में मदद कर रही हैं ।

किनारों पर

यहाँ -वहाँ पड़ा भाग

देखकर ही ,

कृष्ण समझ जायेंगे

कि तुमने उनके

वियोग में ,

कितनी विकलता

सहन की है

और ,

सर्द आहें भरीं हैं ।

कृष्ण तो ,

भंवरों को देखते ही

जान जायेंगे तुम्हारी ,

बेकली को ,

तड़पन , विरह और मिलन की

आतुरता का अहसास

कर ही लेंगे ।

पर , यह

जेठ की तपन

ऊपर से

वियोग की अगन

और गर्म आहों ने

तुम्हें , इतना

कृशकाय बना दिया है ।

किनारों पर पड़ी

रेत ही बता देगी

कि तुम ,

कृष्ण के वियोग में

कितनी सूख गई हो ।

तुम्हारी इठलाती

बलखाती देह

कभी ,

कदम की डाली

छूने को लालाइत होती थी ,

उठती गिरती लहरों से

जब तुम कृष्ण को

रिझातीं थीं ।

तब , राधा

डर जाती थी ,

राधा को बहा ले जाने की

कोशिश में

तुम्हें कितना शुकून मिलता था ।

तुमने कृष्ण की

बांसुरी छुपाने की

कई बार कोशिश की ,

कृष्ण के पैरों का महावर

तुम रोज ही धोया करतीं थीं ।

अब ,

वो सब कहाँ ?

तुम्हारी, धागे सी धारा

देखकर ही

कृष्ण अनुमान लगा लेंगे

कि तुम ,

पुनर्मिलन और दर्शन की

आकांक्षा से ही

जीवित हो ।

विद्या शर्मा ......

सीढ़ी


हाँ - हाँ

आओ

मेरे पास

अपना बांया पैर

धीरे से उठाओ ।

और रखो पहले

डंडे पर

क्यों डरते हो ?

थोड़ा हिलती है तो क्या हुआ ?

अब दांया पैर उठाओ

और रखो

दूसरे डंडे पर

ओह !

घबराओ मत ।

दूसरा डंडा नही है ।

कोई बात नही ।

पैर को थोड़ा

और ऊपर उठाओ

और सहस करो

पैर को तीसरे डंडे पर रखो ।

डर गए ?

एक बांस फटा ही तो है ।

दुसरे को रस्सी से

बांधकर जोड़ा है ।

उठाओ और बढाओ ,

सहस नै है

सहस,

एकत्र करो

और

छलांग लगाकर

एक बार में ही छु लो ।

आखरी डंडा ।

अपने अन्दर शक्ति को

द्रिंद रखो।

और

स्थिर हो जाओ ।

यह

टूटी फूटी सीढ़ी भी

बन जायेगी

शक्ति पुंज ।


विद्या शर्मा ...

हिमालय


तुम जानते हो ?

मैं संतरी हूँ ।

तभी तो ,

तुम्हारी रक्षा कर पता हूँ ।

और

करता ही रहूँगा ।

क्युकी ,

मेरी ऊचाई और

विशालता ने ही

मुझे मजबूर किया है ।

तुम चाहो तो ,

मेरी इस ऊचाई से

सबक ले लो ।

ऊचे और ऊचे

उठ कर ,

आसमान को छूकर ,

देखो तो ,

मैं खुशी से

नाच उठूँगा ।

मेरी तरह

ऊंचे उठकर

अडिग बन जाना,

फ़िर

विरला ही

तुम्हे छू सकेगा ।


विद्या शर्मा ...

गुडिया


में प्यारी गुडिया

तुम ! कितनी प्यारी हो

तुमने मुझे अपने साथ खिलाकर

मेरे प्यारे बचपन को

और भी

सुनहरा बनाया था ।

मेरे रूठने पर

मनाया था ,

मेरे रोने पर

हास्य था ।

मेरी बढती उम्र को

सहारा दिया था ।

मेरे डोली में

बैठते समय भी

मूक आशीर्वाद दिया था ।

विदाई से पहले

जब मैंने ,

तुम्हारी संदूकची खोली थी ,

तुम्हारी सदा मुस्कुराती

आंखों ने

मुझे आंसू दिए थे ।

तुम्हारे मुस्कराते लाल अधर

लरजते नज़र आए थे ।

तुम्हारा नाज़ुक हाथ जैसे

ऊपर उठता चला गया था ।

और मैं तुम्हे

संदूकची में बिछे

नर्म गद्दी पर

जो मेरी नानी ने

बनाया था ,

अश्रुपूरित नेत्रों

और

कांपते हाथो से ,

लिट दिया था उसमे ।

अपने बचपन के प्रतिरूप,

तुम्हे

छोटी बेहेना के लिए ।

उसने भी तुम्हे

मेरी तरह ही

लिटा दिया होगा ।

शायद बड़े भाई के बच्चे के लिए ।

तुम,

सभी को

मेरी तरह ही

प्यार करती हो ।

तुमने कितनो को ,

बड़ा करके

सहा है उनका वियोग ।

किंतु तुम ,

रहती हो ज्यो की त्यों ।

न कभी थकती हो

न कभी होता है

तुम्हारा काया कल्प ।

तुम देती हो

कितनो को

अनगिनत सपने ,

जो कभी

फीके नही होते ।

उनमे तो , सदा होते हैं

चाँद और सितारे ही ।

तुम मुझे बता दो

क्या ,

मैं बन सकती हूँ

तुम्हारी तरह

ममता , त्याग

और

धीरज वाली ?


विद्या शर्मा ...

दस्तक न दो


तन्हाई में रहने की

बड़ी मुश्किल से आदत डाली है ।

अब , दस्तक न दो ।

खिड़की और दरवाजों को

बंद रखकर ।

रोशन दान में,

परदा लगाकर

दीपक बुझाकर ,

शून्य में निहारना

अब तो अच्छा लगने लगा है ।

अब ,

दस्तक न दो ।

क्युकी ,

उबलती भावनाओ

छलकते अरमानो को

मसोस कर ,

बड़ी देर में

सहज हो पाई हूँ ,

अब,

दस्तक न दो

इस अंधेरे की

घुटन में,

सीलन भरी उबासी में

धुंधलके प्रकाश में ,

बड़ी मुश्किल से

देख पाई हूँ ।

अब,

दस्तक न दो ।


विद्या शर्मा ...

आज का नेता


अगर जीना है शान से

तो सीखो दो मंत्र हमसे

जाना पड़ा कहीं सभा में

और देना पड़े भाषण तुम्हे

तो बोलो ,

जीवन करेंगे स्वर्ग

गरीबी मिटाके ।

देंगे रोज़ी कर्जा दिलके ,

कार्लो वादा मुट्ठी दिखाके

छिपालो सच्चाई तारे दिखाके ।

बढ़ जायेगी शान नारे लगाके ।

और रहना हो समाज में,

प्यार दिखाओ ,

झूठी नफरत दबाके

खिसख जाओ फ़ौरन ,

सहानुभूति देके

बनालो काम अपना ,

चापलूसी करके

पड़ जाए काम उसका ,

तो मजबूरी दिखादो

बढ़ जायेगी शान

व्यवहारी केह्लआके ।


विद्या शर्मा...


औरत


मर्द क्या है ?

कहाँ से आया ?

एक हिस्सा

औरत का ही है न ?

मर्द तो कुछ भी नही ,

ज़मीर है औरत का ।

शौर्य है औरत का

हौसला है औरत का ।

नादान हो तुम, मर्द !!

स्वयं पीकर अश्रु वह,

पेय तुम्हें पिलाती

प्रेरणा गर न बनती ,

माशूका बनकर तन्हाईयाँ न मिटाती ,

न तुम होते और

न तुम्हारे वजूद का

नामो निशान होता ।


विद्या शर्मा...

Friday, March 6, 2009

दिल



बात दिल की है ,

रहता तो ,

कंदराओं में है ,

फ़िर भी

सुन ही लेता है ।

देख भी लेता है

अगर ,

न देखे और

न सुने तो

दिल पत्थर है ।

देखते ही भा गया कोई

तो ,

दिल दीवाना है ।

सुनते ही अगर

मिल गया किसी से

तो ,

दिल नादाँ है ।

दिल को कौन समझाए ?

कौन रास्ता दिखाए ?

क्योंकि

कान खुले है उसी से

आँखें रोती हैं ,

उसी से ,

उसके इशारे समझले कोई

तो ,

समझदार है दिल ।

विद्या शर्मा ...

बचपन


प्यारे बचपन

अब मुझे तू

आवाज न दे ।

क्योंकि ,

तेरी ओर देखते ही

आँखें भर आतीं हैं ।

दिल तड़फ उठता है ,

शरीर मैं ,

स्फूर्ति तो आती है ,

किंतु

कुछ क्षणों के लिए ।

तुमने

मुझे बुलाया है

अनेकों बार ,

साथ चलने को ।

पर मैं ,

विवश हूँ ,

अब मैं ,

दूर ..बहुत दूर

निकल आई हूँ ।

मेरी तो ,

परछाई भी नही मिलेगी

क्योंकि , अब मैं ,

जेठ की

दुपहरी में खड़ी हूँ ।

इसलिए ,

मेरे प्यारे बचपन !!

अब मुझे ,

आवाज न दे ।

विद्या शर्मा ....

पतंग


हाय पतंग !!!

तुम हो कितनी खुशकिस्मत ,

हम हैं खड़े ,

ज़मीन पर

तुम्हे मिली है जन्नत ।

तुम्हारा

शून्य में भटकना

कभी दाँय

कभी बाँय

और कभी ऊपर जाना

कभी , रूठना

कभी मचलना

और कभी गाना तेरा

भाया मेरे मन को ,

किंतु यह डोर ?

माजरा क्या है ?

नही आया पसंद ।

तो क्या

तुम्हे भी वही थामे है ?

जिसने मुझे भी थामा है ।

तो सिर्फ़

फर्क इतना है

हमें डोर ने नही

संस्कारों ने थामा है ।

विद्या शर्मा ...

व्योम


हे व्योम , तुम क्या हो ?

तुम्हारा आदि कहाँ है ?

और

अंत कहाँ है ?

क्या

अग्रज तुम दधि के हो ?

गहराई असीम है ,

और

विस्तार असीम है ।

ग्रह असंख्य भरे तुममे ,

और

रत्न अनंत हैं कनिष्क में ।

रूप नही

कुछ है पयौध का

और

ही तुम्हारा समुद्र ।

"निराकार"

क्या ब्रह्म तुम्ही हो ?

आत्मा से परमात्मा का ,

मिलन तुम्ही हो ?

हे व्योम !!!

तुम क्या हो ?


विद्या शर्मा ...