Monday, March 16, 2015

काकी

बरसों पुरानी बात है , माँ ,ताई , काकी , काका , ताऊ , बाबा और सारे भाई बहन सब एक साथ ही रहते थे , कोई भी समझ नहीं आता था कि कौन सगा भाई बहन है कौन चचेरा , माँ तो पूरे दिन घर के काम में लगी रहतीं थीं उसके बाद जो समय मिलता था , तब भी कुछ न कुछ करती ही रहतीं थी , कभी सिलाई -कढ़ाई , कभी बुनाई कभी , अचार डालने का काम करने लगतीं , काकी की कोई संतान नहीं थी फिर भी सुबह से शाम तक वे व्यस्त रहतीं थीं , काकी ऊपर रहतीं थी , आँगन में काकी के कमरे की खिड़की खुलती थी जो हमेशा खुली ही रहती थी , सामने ही माँ की रसोई थी तो हर समय कौन क्या कर रहा है , सब दिखाई देता रहता था।

माँ , अपना काम ख़त्म ही नहीं कर पाती थीं , काकी घूमने के लिए तैयार हो जातीं थीं , काकी के साथ घर के बच्चे घूमने में मस्त रहते थे , कभी राम लीला देखने , कभी गंगा नदी में डुबकी लगानी हो हर बात के लिए काकी तैयार रहतीं थीं , जब बाबा को पता चलता कि घर के लोग शहर में घूम रहे हैं तो घर आकर डांट लगाते थे , तब काकी ही सबको बचाती थीं , काकी का नाम सुनते ही बाबा चुप हो जाते , काकी जब खाना बनातीं तो माँ और ताई के साथ ही खाना खातीं थीं चाहे कितना भी इंतजार करना पड़े , जो भी बनातीं सभी को चखने देतीं।

माँ , जब स्वेटर बुनना शुरू करती तो काकी भी एक स्वेटर डाल लेतीं , रात भर लालटेन की रौशनी में काकी स्वेटर बनाती रहतीं सुबह जब माँ , देखतीं तो पूरा स्वेटर उधेड़ देतीं क्योंकि वो ज्यादा बड़ा हो जाता था , काकी अपनी धुन में काम करती रहतीं , लेकिन सर्दी ख़त्म होते -होते स्वेटर बन जाता , काकी कभी हार नहीं मानती थीं , माँ जब बड़ा चादर काढ़ने का मन बनाती तब काकी भी बाजार से चादर ले आती और बनाने के लिए छपाई करवा लेतीं , माँ , समझा देती यहाँ ये रंग लगाना , यहाँ पर ये वाला लेकिन काकी का चादर जब तैयार होता तब रंगों का कोई महत्त्व न होता , कभी फूल हरा होता कभी पत्तियां लाल होतीं जो रंग का धागा सुई में होता , चादर उसी रंग से बनती जाती , सब लोग हँसते लेकिन काकी कभी बिचलित नहीं होती , उन्हें तो सब कुछ जानने से मतलब था।


काकी , निरी सहज , सरल , सच्ची , भोली और जिंदगी को उसी के बहाव के साथ जीने में भरोसा रखती थी ,संतान न होने का दुःख उन्हें कभी नहीं रहा , उम्र के अंतिम पड़ाव पर काकी अपने भाई -भतीजों के पास चली गई , आज भी काकी की कर्मठता याद आती है , वे अब दुनियां छोड़ गई लेकिन यादें यहीं भटकती हैं।

विद्या शर्मा 

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