Tuesday, March 17, 2015

कुम्भ का मेला

बरसों से सुनते आ रहे हैं कि कुम्भ के मेले में बड़ी भीड़ होती है , वहां दुनिया भर के साधु -संत आते हैं , हजारों -लाखों लोगों का हुज्जूम जमा होता है , नागा साधु अगर नाराज हो जाय तो , मार -काट मचा देते हैं , कहीं बीमारी फ़ैल जाती थी तो कहीं भगदड़ मच जाती थी , फिर भी हमारे खानदान से २० लोग कुम्भ लाभ के लिए गए , आज से ७० बरस पहले की बात है , घर के सभी पुरुष मेला देखने इलाहाबाद गए थे , मेला तो महीने भर से अधिक चलना था लेकिन कह कर गए थे आठ दिन में आ जायेंगे , माँ , चाची ताई ,सब घरों में थीं , माँ ने सोचा सब लोग कुम्भ गए हैं तो हम लोग गंगा नहाने चले जाते हैं , माँ , कुछ बच्चों को लेकर गंगा के लिए निकल पड़ीं।

उस समय कोई संचार साधन नहीं थे बस , अख़बार छपते थे वो भी दूसरे दिन खबर छप पाती थी , कोई आता -जाता होता तो खबर मिल जाती थी , कुम्भ में गए घरवालों की कोई खबर नहीं थी , माँ चिंतित तो थी पर उस समय सब भूल गईं , घर से खाना बनाकर ले गईं कि जब स्नान हो जायेगा तब , बच्चों के साथ वहीँ खाना खा लेंगे , रास्ते भर कोई भीड़ नहीं थी क्योंकि कुम्भ में जाने वाले अधिक थे , गंगा स्नान को कम लोग ही निकले थे , गंगा घाट पर लाउडस्पीकर में जोर -जोर से बोला जा रहा था , गंगा में गहराई में न जाएँ , बच्चों को साथ रखें , कूड़ा गंगा में न फैकें लेकिन साथ ही कुम्भ में मरने वाले परिवार वालों का भी बता रहे थे।

हम लोग जब स्नान कर चुके और खाना खाने के लिए साफ़ स्थान खोज रहे थे तभी माँ ने सुना कि राम चन्द्र , कानपुर वालों का पूरा परिवार ख़त्म हो गया है , माँ , घबरा गई , अब क्या करे , तभी घर वापस जाने के लिए तांगा देखने लगी , बच्चों से कहा , अब घर चलो वहीँ खाना खा लेना , बच्चे कुछ नहीं समझे , चुपचाप माँ के पीछे हो लिए , जब घर पहुंचे तो माँ ने रोना चालू कर दिया था , अभी तक कोई भी मेले से वापस नहीं आया था , सभी लोग परेशान हो गए , हालाँकि सब लोग अलग -अलग गए थे लेकिन हो सकता है वहां सब मिल गए हों , पड़ोसियों ने समझाया कि अभी दो दिन इंतजार करो जब कोई न आये तब पुलिस से पता लगाएंगे , माँ , शांत हुई और खाना भी खा लिया।

दो दिन बाद खानदान के चार लोग वापस आ गए लेकिन बाकी लोगों का कोई पता नहीं लगा , उन्होंने बताया कि बड़ी भीड़ है , हाथ को हाथ नहीं दीखता , हाथ छूटा तो बिछड़ गए , मिल नहीं सकते , हमने तो हाथ बांध रखे थे , हर दिन नई कहानियां सुना रहे थे , फिर चौथे दिन दो लोग वापस आ गए उन्होंने आकर कुछ नई बातें बताना शुरू कर दिया , बीमारी फ़ैल रही है , बहुत लोग मर रहे हैं , कोई गिनती नहीं है , अभी तक राम चन्द्र जी नहीं आये थे , माँ की घबराहट बढ़ती जा रही थी।

सारे रिश्तेदार आ गए , बाबा का कोई पता नहीं चल रहा था , चार दिन बाद तो घर में कुहराम मच गया , माँ का रो रोकर बुरा हाल था , सभी लोग एकत्र थे , अब तो कोई आस न रही पुलिस ने भी कह दिया राम चन्द्र नाम का व्यक्ति मरा है , क्या करें , पंडित जी ने बोला जब तक व्यक्ति का शरीर न हो तब तक अंतिम संस्कार कैसे कर सकते हैं , दो लोग कुम्भ भेजे गए , दुसरे दिन पता लगा कि राम चन्द्र नाम का व्यक्ति मरा है लेकिन गंगा में बहा दिया , सरकार क्या करेगी रखकर , अब तो , पक्का था कि बाबा इस दुनिया में नहीं रहे , पंडित ने शास्त्र देखना शुरू किया ,यदि कुम्भ में मृत्यु हो तो क्या , संस्कार करना चाहिए , कोई कुछ बोलता , कोई कुछ।

माँ , कुछ भी समझ नहीं पा रही थीं , तभी एकदम सन्नाटा हो गया , घर भर के लोग चुप हो गए , सुई गिरने की भी आवाज सुनी जा सकती थी , ताऊ बोले जा रे , महेश !! मिठाई लेकर आ , तभी पता चला बाबा अपने दोस्त के साथ वापस आ गए हैं , माँ , बहुत अचम्भित थी और खुश भी , सभी खुश थे , ताऊ ने बाबा से पूछा क्यों देर लगी , तब बाबा ने अपना हाल सुनाया कि एक हलवाई की दुकान पर बड़ी भीड़ थी ,वो लोगों को खिला नहीं पा रहा था तो , दौनों ने वहां काम कर लिया , जलेबी बनाने का काम किया , दो दिन तक जलेबी ही खाईं तो दस्त लग गए , वहीँ गंगा किनारे बालू में  तक पड़े रहे , जब पुलिस आई तो , स्वास्थ केंद्र भेजा गया , दो दिन वहां लग गए , जब चलने लायक हुए तो घर आये।  सभी प्रण किया अब कोई कुम्भ नहीं जायेगा।

विद्या शर्मा 

Monday, March 16, 2015

अनोखी शादी

हमारे घर पर लोगों का आना -जाना लगा ही रहता था क्योंकि बाबा वकील जो थे , उनके दोस्तों के  घर कोई उत्सव होता तो हम सब जाकर धमाचौकड़ी मचाते थे , हर महीने कभी किसी का जन्म दिन होता कभी किसी की शादी की सालगिरह होती , कभी शादी होती तो कभी बीमारी , यही सब लगा रहता था , अंजना ने बीएड किया था तो अग्रवाल कॉलेज में लेक्चरर बन गई , सुबह से शाम होती रहती थी सब अपनी दुनियां में मस्त थे , अंजना शाम को कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी , समय यूँ ही निकल जाता था।

अंजना की शादी हो गई डाक्टर साब दो बरस बाद ही एक दुर्घटना का शिकार हो गए और अंजना हम लोगों के बीच ही बनी  रही , वही पुराना रहन -सहन ही चल रहा था , लेकिन अब अंजू ने अलग घर ले लिया था , साथ में अम्मा चली गई थीं , कभी अकेली भी रहती , बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम अभी भी कर रही थी उनमें एक बच्चा राहुल अंजू से इतना पभावित हुआ कि उसका सारा काम चाहे बिल जमा करना हो , सब्जी लाना हो , दूध लाना हो सब करने लगा , बस मौसी आप बोलो मैं करूँगा सारे काम , उसके माता -पिता भी बुरा नहीं मानते थे क्योंकि बाबा के दोस्त थे , वे भी वकील थे।

जब भी कोई बात राहुल को करनी होती दौड़कर आता और चाय बनाकर देता , बोलता मौसी , मुझे बताया करो , अपनी सारी मुश्किलें अंजू से कहता रहता , जब थोड़ा सयाना हुआ तो अंजू के पास गया और बोला - मौसी मैं , शादी करूँगा तो बिना दहेज़ वाली , लड़की को एक जोड़े में ही घर लाना चाहता हूँ , राहुल शहर में बुक स्टोर चलाता है , घर खर्च का निकाल लेता है , अंजू तो खुश थी चलो , कुछ तो शिक्षा काम आई , एक शिष्य ने तो काम किया , लेकिन राहुल के पिता चमन लाल जी को समझाना आसान न था ,पर राहुल ने उन्हें भी अपने हक़ में कर लिया।

एक दिन राहुल आया और शादी का कार्ड देकर चला गया , तब समझ आया अब कुछ नया घटने वाला है , सारे   रिश्तेदार नाराज थे , बरात में जाने को नहीं मिल रहा था , राहुल पंडित जी को लेकर गया , एक जोड़ा लड़की के लिए और नई साईकिल पर अपनी पत्नी शीला को बिठाकर ले आया , दुसरे दिन घर में दावत रखी थी , चार दिन बाद राहुल अंजू के घर आकर चाय बना रहा था , अंजू कह रही थी बेटा !! अब तेरी शादी हो गई है , बहु बुरा मानेगी , नहीं मैं , उसे समझा लूंगा , मौसी !! जो कहा था वो किया , अब देखो , लड़के क्या समाज में नई लहर लातें हैं , पूरे शहर में अखबार राहुल की खबर से भरे थे , कुछ दिनों बाद सब भूल गए किसी ने सबक नहीं लिया। दहेज़ के लालची चुपचाप विवाह कर रहे थे। अंजू तो खुश थी चलो , किसी ने तो उसकी शिक्षा को ग्रहण किया।

विद्या शर्मा 

काकी

बरसों पुरानी बात है , माँ ,ताई , काकी , काका , ताऊ , बाबा और सारे भाई बहन सब एक साथ ही रहते थे , कोई भी समझ नहीं आता था कि कौन सगा भाई बहन है कौन चचेरा , माँ तो पूरे दिन घर के काम में लगी रहतीं थीं उसके बाद जो समय मिलता था , तब भी कुछ न कुछ करती ही रहतीं थी , कभी सिलाई -कढ़ाई , कभी बुनाई कभी , अचार डालने का काम करने लगतीं , काकी की कोई संतान नहीं थी फिर भी सुबह से शाम तक वे व्यस्त रहतीं थीं , काकी ऊपर रहतीं थी , आँगन में काकी के कमरे की खिड़की खुलती थी जो हमेशा खुली ही रहती थी , सामने ही माँ की रसोई थी तो हर समय कौन क्या कर रहा है , सब दिखाई देता रहता था।

माँ , अपना काम ख़त्म ही नहीं कर पाती थीं , काकी घूमने के लिए तैयार हो जातीं थीं , काकी के साथ घर के बच्चे घूमने में मस्त रहते थे , कभी राम लीला देखने , कभी गंगा नदी में डुबकी लगानी हो हर बात के लिए काकी तैयार रहतीं थीं , जब बाबा को पता चलता कि घर के लोग शहर में घूम रहे हैं तो घर आकर डांट लगाते थे , तब काकी ही सबको बचाती थीं , काकी का नाम सुनते ही बाबा चुप हो जाते , काकी जब खाना बनातीं तो माँ और ताई के साथ ही खाना खातीं थीं चाहे कितना भी इंतजार करना पड़े , जो भी बनातीं सभी को चखने देतीं।

माँ , जब स्वेटर बुनना शुरू करती तो काकी भी एक स्वेटर डाल लेतीं , रात भर लालटेन की रौशनी में काकी स्वेटर बनाती रहतीं सुबह जब माँ , देखतीं तो पूरा स्वेटर उधेड़ देतीं क्योंकि वो ज्यादा बड़ा हो जाता था , काकी अपनी धुन में काम करती रहतीं , लेकिन सर्दी ख़त्म होते -होते स्वेटर बन जाता , काकी कभी हार नहीं मानती थीं , माँ जब बड़ा चादर काढ़ने का मन बनाती तब काकी भी बाजार से चादर ले आती और बनाने के लिए छपाई करवा लेतीं , माँ , समझा देती यहाँ ये रंग लगाना , यहाँ पर ये वाला लेकिन काकी का चादर जब तैयार होता तब रंगों का कोई महत्त्व न होता , कभी फूल हरा होता कभी पत्तियां लाल होतीं जो रंग का धागा सुई में होता , चादर उसी रंग से बनती जाती , सब लोग हँसते लेकिन काकी कभी बिचलित नहीं होती , उन्हें तो सब कुछ जानने से मतलब था।


काकी , निरी सहज , सरल , सच्ची , भोली और जिंदगी को उसी के बहाव के साथ जीने में भरोसा रखती थी ,संतान न होने का दुःख उन्हें कभी नहीं रहा , उम्र के अंतिम पड़ाव पर काकी अपने भाई -भतीजों के पास चली गई , आज भी काकी की कर्मठता याद आती है , वे अब दुनियां छोड़ गई लेकिन यादें यहीं भटकती हैं।

विद्या शर्मा 

बिरजू का भूत

माँ , अपने पीहर बहुत कम जाया करती थीं , नाना नानी बहुत पहले ही गुजर गए थे , मामा था जो अपने दोस्तों के साथ घूमता रहता था , कभी खेत पर जाता ,कभी शहर में घूमता ,बस यूँ ही अपना समय बर्वाद करता था जब ,माँ ,बाबा की डांट -फटकार से दुखी हो जातीँ तो मामा के पास जाने का विचार पक्का कर लेती , हम छोटे बच्चे साथ हो लेते थे , माँ , एक बूढी नानी ननकी के घर जाती थी गेंहू पीसने के लिए , निठल्ला मामा घर की हालत ख़राब करके रखता था , माँ , एक हफ्ते तक घर ही संभारती रहती , कुछ दिनों तक मामा की आवारगी पर रोक लग जाती थी।

वहीँ गांव के कुंए के पास हरिया और बिरजू का घर भी था , दौनों साथ -साथ खेत पर जाते , जानवरों का काम करते , आराम करते फिर अलाव जलाकर ,दोस्तों के साथ किस्से -कहानियां सुनाते रहते ,मामा उन लोगों के पास जाकर ताश खेलता था , माँ , डांट लगाती थी ,पर उसपर कोई असर नहीं होता था , हरिया अपने घर के बरांडे में सोता था , बिरजू सुबह चार बजे आवाज लगाता और हरिया उठकर मुंह -हाथ धोता और बिरजू के साथ चल देता , यही रोज का नियम था , दिन में पेड़ की छाँव में आराम करते थे , जब ये लोग खेत पर होते तो हरिया की माँ , खेत पर ही रोटी और अचार ले आती थी दोनो दोस्त खाना खाते और खेत का काम पूरा करके ही वापस आते।

माँ , पंद्रह दिन से अधिक कभी नानी के घर नहीं रूकती थी , मामा यह जानता था , एक रात को सब लोग अलाव पर कहानिया सुना रहे थे , तभी बिरजू को दस बरस पुरानी बात याद आ गई , बहन जी सच्चा किस्सा सुनाता हूँ , मैं रोज हरिया को लेने जाता था , एक दिन मुझे बुखार आ गया तो में न जा सका लेकिन हरिया के पास सुबह तड़के बिरजू के रूप में भूत पहुँच गया , हरिया भी उठा और साथ चल दिया , रास्ते में लगा आज तो रात अधिक है , बिरजू !! आज जल्दी क्यों आया ? नहीं ऐसा नहीं है , तू चल , लेकिन हरिया थोड़ा डर गया तो वहीँ बैठ गया और चिलम जलाने लगा , बिरजू का भूत बोला ! भाई चल आग मत जला , हरिया समझ गया कुछ तो गड़बड़ है सब जगह सन्नाटा था , खेत तक गया तभी हरिया ने सोच लिया चिलम नहीं छोड़ेगा लेकिन बिरजू भूत ने खेत का काम करवाने के लिए बैल लगवा लिए और हरिया का पैर बैल की डोरी में फंस गया , बैल बिदक गए क्योंकि जानवर तो भूत की उपस्तिथि समझ रहे थे।

हम लोग माँ के आँचल में घुसते जा रहे थे , मामा भी डर रहा था , तब बिरजू ने बताया कि बैल हरिया को घसीटते हुए घर तक ले आये , रास्ते में ही हरिया के प्राण पखेरू उड़ गए , गांव भर में दहशत  फ़ैल गई वो तो अच्छा हुआ मैं बीमार था वरना लोग मेरा भी जनाजा निकाल देते , मुझे बहुत दुःख हुआ मेरा दोस्त इस तरह गया , कई बरस तक मैं खेत पर काम नहीं कर पाया , अब सब ठीक है , लेकिन मेरा रूप धरकर मेरे दोस्त को मार डाला। हम सभी आश्चर्य चकित थे।  मामा के गांव में फिर कभी जाना नहीं हुआ। आज भी पुराने किस्से याद आते हैं।

विद्या शर्मा  

Friday, March 13, 2015

मामी की सहेली

राजस्थान में छोटा सा गांव डावली , वहां मामा दो और एक मामी रहते थे , कच्चा घर था , दो बड़े -बड़े बरांडे , एक आँगन बड़ा सा , दो कमरे।  बरांडे में अरहर की लकड़ी लगाकर जानवरों के लिए बाड़ा बनाया गया था , जहाँ मामी की सहेली भैंस लीला रहती थी , बड़े मामा का विवाह नहीं हुआ था , छोटे मामा का हुआ भी तो मुश्किल से एक बेटी पैदा हुई जो शादी के बाद अपने घर चली गई , मामी अकेली रह गई क्या करती , जब देखो ,तब भैंस का ही काम करना पड़ता था , मामी को लीला के अलावा कोई नहीं भाया उसी को सहेली बना लिया , पूरे गांव को पता था कि मामी अपनी सहेली से सारा सुख -दुःख कहती है , कभी जब मामा से नाराज हो जातीं तो सीधे लीला के पास जाकर दुखड़ा रोया  जाता।

मामा के पास एक बड़ा बाग़ था जिसमें सभी फलों के पेड थे , उसी में फसल भी हो जाती थी जब भी मामा घर आते कुछ अवश्य लाते थे लेकिन इतने कंजूस थे कि कभी भी आम , अमरुद नहीं लाते थे , जब बाग़ खाली होने लगता तब लेकर आते वो भी १५ से २० अमरुद , मामी बड़ी खुश मिज़ाज थी , जब भी माँ के घर से हम जाते तब , मामी घी से पूरी बनाती , घी का हलवा बनाती , खीर बनाती और बड़े प्यार से खिलाती , माँ डावली कम ही जा पाती थी , सायकिल से हम जाते और शाम को वापस आ जाते , मामी जाते समय दस रूपये हमारे हाथ में पकड़ा देती।

मामी अपनी सहेली लीला को जब कभी मामा की बेरुखी बताती तो लीला भी कभी मुंह हिलाकर , कभी आँखें मटकाकर जवाब देती थी , घंटों तक मामी लीला से बातें किया करती और लीला एक टक मामी को निहारती रहती , कभी जब मामी बीमार होती तब , मामी को चाटकर लीला प्यार बरसाती। मामा तो बाग़ का काम देखने के बाद घर के बड़े बरांडे में रामायण , कभी महाभारत का पाठ शुरू कर देते , गांव के लोग भी सुनते और रात में वहीँ सो भी जाते , सुबह उठ कर जाते , एक बार मामा के घर गए तो बारिश हो गई और रात वहीँ रहने का निश्चय किया , सुबह देखा सायकिल के पास स्वाफी रखीं थी , मामा रात को तो नहीं थीं तभी भुस के ढेर से चार पांच लोग निकले और स्वाफी से मुंह साफ़ करते हुए चले गए , तब मामा ने बताया कि गांव के लोग हर वस्तु का उपयोग करना जानते हैं , उन्हें पता है कि भुस गरम रहता है।

मामा ने साथ में टोसा बाँधा और हम घर आ गए ,मामी अपनी सहेली के साथ फिर व्यस्त हो गई। गांव की जिंदगी बहुत ही सहज होती है।

विद्या शर्मा 

बाबू जी

शारदा का विवाह ६० के दशक में एक जमीदार परिवार में हुआ था , शहर में रहने वाली लड़की को गांव में आकर थोड़ा सामंजस्य बिठाना पड़ा , सास ससुर , ननदें , देवर  सभी के साथ रहना जरा सा कठिन रहा , लेकिन जब , घर में लड़की आ जाती है तब , सब आसान हो जाता है , घर के चौबारे में , बड़े नीम के पेड़ पर सावन में झूला पड़ जाता था , रात में घर की औरतें एक जगह आ जातीं और सावन के मल्ल्हार गाने लगतीं , दिन भर की थकान पल भर में छूमंतर हो जाती थी , पता ही नहीं चलता था कितनी रात हो गई है

शारदा के ससुरजी इलाहबाद से वकालत करके आये थे , अंग्रजों की खिलाफत करते थे लेकिन  अंग्रेजी ही पढ़ाते थे , कई वकील उनसे वकालत की शिक्षा लेने आते थे , बाबूजी ने होम्योपैथी का प्रशिक्षण लिया था , वे डॉ, थे , गांव के किसी भी बीमार आदमी को दवा देते थे , सभी को उनकी दवा से फायदा भी होता था , बीमार एक कटोरी में साफ़ पानी लाता था और वे उसमें दवा की कुछ बूँदें डाल देते थे , दूर -दूर से लोग उनके पास इलाज के लिए आते थे।

एक आदमी उनके पास आया जिसकी नाक लम्बी हो गई थी , बाबूजी ने देखा और एक खुराक खिला दी और दूसरी बाद में खाने को कहा और बीमार ठीक हो गया , बाबूजी की शौहरत सब जगह फ़ैल गई , वकालत से ज्यादा डाक्टरी चल रही थी पर वे किसी से एक पैसा नहीं लेते थे , एक मरीज़ इतना मोटा हो गया था उसे ठेल पर लिटा कर लाया गया , उसे दवा खिला दी , दूसरी एक हफ्ते बाद और कहा इसे ऐसी जगह रखना जहाँ से यूरिन पास कर सके , जल्दी -जल्दी। मरीज़ जल्दी ठीक हो गया।

बाबूजी सुबह से घर से निकल जाते थे कभी कोर्ट जाते कभी कचहरी क्योंकि जमीनों के मुकदद्मे लगे हुए थे , उनकी खाली पड़ी जगहों पर लोगों ने अपने घर बना लिए थे , कोई खेती करने लगा , हर समय इन्ही कामों में व्यस्त रहते थे ,हमेशा पैदल ही जाते थे ,कभी एक रास्ते से नहीं आते जाते थे क्योंकि लोग उनकी जान के पीछे पड़ गए थे , घर -परिवार वालों  जल्दी घर आने को बोलते थे , शारदा के पति अक्सर देर से आते तो बाबूजी खूब फटकार लगाते लेकिन किसी पर कोई असर नहीं होता था।

बाबूजी सुबह दूध दलिया खाते और कोर्ट चले जाते , दिन में चने मुरमुरे और मूंगफली खाते फिर शाम को ही खाना खाते , गांव भर के मसले बाबूजी ही सुलझा देते थे , कभी गांव में पुलिस नहीं आई और न कभी कोई झगड़ा ही होता था , गरीब लोगों को हर महीने गेंहू , चना , बाजरा जो भी संभव सभी को देते थे , शादी ब्याह की मुश्किलें भी बाबूजी ही देख लेते थे , किसी को होली पर रंगना हो तो अंदर आकर बता देते थे और रंगने के बाद बोल देते अरे !! मैंने तो मना किया था ,शादी की हर रस्म का आनंद लेते थे , बेटे की शादी में घरातियों से कहकर ज्योनार गाने को कहा , जिसमें बरातियों को गालियां दी जातीं हैं।

बाबूजी दुनियां में निराले ही थे , सीधे , सच्चे , हंस मुख , ईमानदार , सरल और महान इंसान थे , उनके जैसा अब , कोई भी होना मुश्किल है।

विद्या शर्मा  

Tuesday, March 10, 2015

दुहरा कर्ज

वैदेही के खानदान में तीन पीढ़ियों से कोई कन्या संतान नहीं थी , दादी ने चार बेटों को जन्म दिया , गजोधर , रामदेव , राम दयाल  और नौबत राम। सभी खुश थे , गृहस्थी का खर्च तो चल जाता था लेकिन युवा होते बेटों को आधुनिक सुविधाओं ने अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया था तो वे गांव से पलायन करने लगे और एक दिन शहर  में  अपना आशियाना बना लिया।

बड़े बेटे के घर  दो बेटियों ने जन्म लिया , दूसरे को एक बेटा , तीसरे को कोई संतान नहीं हुई चौथे बेटे के घर पांच बेटी और पांच बेटों ने जन्म लिया , दादी का आशीर्वाद वैदेही की माँ को ही लगा , दादी हमेशा कहती थी पांच कन्या हों , सभी बहुत खुश थे , पहली कन्या तो नाजों से पल रही थी , ताऊ ने चौदह बरस की उम्र में भानु प्रिया का विवाह कर दिया , पति हाथरस के जमीदार परिवार से थे , गांव में रईस बनकर रहना अलग बात होती है , उनकी दामाद वाली ठसक थी , घर के मुखिया थे तो अलग रुतवा था , अन्य बेटियां अभी पढ़ रहीं थीं।

वैदेही का परिवार मिलकर रहता था , कोई समझ ही नहीं पाता था कि कौन चाचा का बच्चा है कौन ताऊ का , भानुप्रिया जब छोटी थी तब ताऊ से बोल दिया करती थी देखना बाबा आपके ऊपर मेरा दुहरा कर्ज है वे समझ नहीं पाते थे , कहते हाँ बेटी , ठीक है तुझे जो चाहिए बता सब मिल जायेगा , सब हंसी में बातें होती रहती थीं , भानु ससुराल से जल्दी ही घर आने की जिद करती थी , घर आती तो ससुराल जाने की जिद करती उनका मिजाज कुछ बदल रहा था , पति अपनी शिकायत सासु जी से करते तो भी सभी लोग मज़ाक में ले जाते , धीरे -धीरे दौनों के रिश्ते में खींचा तानी शुरू हो गई और एक दिन भानुप्रिया पीहर आने की जिद करने लगीं तब पति तेज बहादुर ने कह दिया अब , वापस न आना और भानुप्रिया ने रेलगाड़ी में ही नींद की गोलियां खा लीं और हमेशा के लिए पीहर और ससुराल का सिलसिला ख़त्म कर दिया।

ताऊ के साथ ही सारा घर बिटिया के जाने से दुखी था , ताई भी दुनिया छोड़ गई , एक बरस तक सब सामान्य हो गया , तब एक रात चाची को सपना आया कि आप लोग दुखी न हों , मैं वापस आ रही हूँ , वैदेही की माँ चौथी संतान को जन्म देने वाली थी , धीरे -धीरे घर के सभी सदस्यों को स्वपन आया और यही बात निश्चित हो गई कि भानुप्रिया आ रही है , सभी बेसब्री से इंतजार करने लगे , ताऊ की ख़ुशी का तो ठिकाना ही नहीं था , वो समय भी आया जब , भानु वापस चाची की संतान के रूप में घर आ चुकी थी , भानु के शारीरिक चिन्ह तक सोना के शरीर पर मौजूद थे , जब , कभी तेज बहादुर ससुराल आते तो सोना छुप जाती थी क्योंकि उस समय लड़कियां पति से भी पर्दा करतीं थीं , माँ को चार साल की सोना बता देती थी कि उन्हें क्या पसंद है क्या नहीं , तेज के सामने नहीं जाती थीं , सोना की बहुत सारी बातें ताऊ को पक्का करतीं थीं कि अवश्य ही भानु अपना दूसरा कर्ज लेने के लिए आई है।

ताऊ की लाड़ली सोना अभी ग्रेजुएशन ही कर रही थी कि हाथरस से ही इंजिनियर का  रिश्ता आया और सोना का विवाह भी तय हो गया , सोना जब ससुराल गई तब पता चला कि पहली वाली ससुराल से भी आना -जाना है , सोना एक बरस ही अपने पति के साथ रह पाई इस बार पति मुकेश ने आत्महत्या करली , कारण पत्नी पीहर नहीं जाएगी चाहे पहली रक्षा बंधन ही क्यों न हो , हिसाब बराबर हो गया , पहले भानुप्रिया ने साथ छोड़ा इस बार मुकेश ने साथ छोड़ा , सोना अकेली रह गई।

ताऊ सोचते थे कि जाने कैसा कर्ज था , कुछ समझ नहीं आता , बड़ी ख़ुशी के साथ ताऊ ने कर्ज अदा किया , इस वाकये से एक बात तो समझ आती है कि हम सभी को अपने कर्मों  का हिसाब रखना चाहिए , इस नहीं तो उस जन्म में अवश्य चुकाना होगा , ताऊ जब बीमार पड़े तब , उनकी छोटी बेटी माया बिलकुल ध्यान नहीं देतीं थीं , उन्हें शक था बाबा अवश्य ही सोना को वसीयत का हिस्सा देंगे , हुआ भी यही बाबा जब घर ठीक होकर आये तब , सोना को भी अपनी संपत्ति का हक़दार बना दिया। धन के लिए कटुता आना स्वभाविक था लेकिन समय ढलते हुए सब ठीक हो गया , ताऊ भी एक दिन नहीं रहे , कर्ज का मतलब वैदेही समझ चुकी थी।

विद्या शर्मा