Sunday, March 28, 2010

चक्षु

चक्षु !!
शरीर की 
दहलीज पर 
लगी , चौखट के 
कपाट ही हैं ,
संस्कारों के 
गवाक्ष हैं ,
संस्कृति के 
पहरेदार हैं ,
सुरक्षा के 
स्तम्भ  हैं ,
दिल का द्वार हैं ,
पीड़ा का 
संचार हैं ,
ममता का उद्गार हैं ,
छल ,दंभ , कटुता का 
आभास हैं ,
चक्षु !!
इस महल की 
भव्यता और
एकता का आइना हैं ,
जीवन की 
सत्यता का 
प्रतिबिम्ब हैं ,
चक्षु हमारा 
व्यक्तित्व ही हैं |

विद्या शर्मा ...

नमन

सीमा की
आन -बाण और शान
के लिए जो ,
आत्माहुति दे गए ,
उन ,
अमर शहीदों को
शत -शत नमन
जो ,
कर्तव्य की पूर्णता के लिए
प्राणाहुति दे गए
उन ,
दिव्यात्माओं को
कोटिश :
नमन |

विद्या शर्मा ..

उर्जावान बनो

स्वनिर्भर बनो
उसमें ,
उत्साह , उमंग ,
आशा ओर विश्वास
समाहित है ,
इन्सान जिज्ञासु ओर
दृढी होता है ,
दिशा हीन
होने पर , ही
गुरु की शरण में
जाता है,
निर्बल होकर तो ,
पतित होता है ,
इसलिए ,
उर्जावान बनो |

विद्या शर्मा ...

पुल

पुल !! तुम
सुच -मच
महान हो ,
कभी न मिलने वाले
किनारे भी ,
मिलाकर
असंभव को संभव कर दिया है|
छोटे गाँव को
शहर से जोड़
दिया है |
वीरानों को
भीड़ से मिला दिया है |
रिश्तों को
दिलों से जोड़
दिया है |
नई-नई  आशाओं को
साकार किया है |
पुल !!
तुम महान हो |

विद्या शर्मा ...

तूफ़ान

हवाओं का सैलाव
आंधी , तूफ़ान , बबंडर
कभी , चक्रवात बन
सब कुछ ,
तबाह करता है |
देश , राष्ट्र , नगर
गाँव ,ओर चौपारे
कभी ,
नष्ट होते हैं ,
तो , कभी ,
आबाद होता है ,
समाज |
भावों , विचारों की
श्रंखला सा ,
सब कुछ,
टूटता , बिखरता है |
बांध से बांधे रिश्ते
दरक कर ढह
जाते हैं |
कभी ,
ठहरी झील से
संबंधों को
समेटती हूँ |
उमंगों के तूफ़ान
घेर लेते हैं
मुझे |

विद्या शर्मा ...

अक्षर

अक्षर , कभी 
ब्रह्म , कभी , आकाश और 
कभी , समुद्र सा 
होता है |
कभी ,
अनंत , विशाल और 
शक्तिशाली तो ,
कभी न्यून , अशक्त और 
दुर्बल होता है |
कभी चढ़ाता है हिम्तुंग पर 
कभी गिराता है 
गहरी खाई में |
कभी ,
घुमाता है 
जीवन को चहु ओर,
कभी हंसाये ,
कभी रुलाये ,
अक्षर ,
राजा को भी रंक 
बना दे  ,
कभी तेली को 
सौदागर |
कभी ,
फौलाद सा कठोर 
बन जाए ,
कभी शबनम सा 
जहर जाये |

विद्या शर्मा ...

Saturday, March 27, 2010

तिरंगा

विश्व विजयी 
तिरंगा   !!!
हमें ,
उत्साहित , प्रेरित 
और 
अभिमानित करता है ,
बलिदान और त्याग 
का पाठ 
पढ़ाकर 
केशरिया , हमें 
वीरता  से 
ओतप्रोत करता है ,
सत्य मार्ग से 
शांत रहकर 
ज्ञानी बनाने की राह 
श्वेत रंग 
दीखता है ,
दृढ प्रतिग्य और 
समृद्ध रहने की 
भावना हरा रंग 
भरता है ,
नीले रंग के 
चौबीस चक्रों का क्रम 
हमें ,
गतिशीलता का 
पैगाम देता है ,
हमारा यह तिरंगा !!!
आकाश की 
ऊँचाइयों को मापने का 
साहस देता है \


विद्या शर्मा ..

Thursday, March 25, 2010

संध्या बेला

रात ढल गई पहर -पहर 
 भोर भई मचल -मचल 
धुप छिटक गई मुडेर -मुडेर 
घड़ा लिए कमसिन चली मटक -मटक 
हल -बैल चल पड़े मचक- मचक 
खेत की पुराई हुई अचक -अचक 
फसल हुई लहर -लहर 
फूल खिले बसंती महक -महक ,


रेत जला उठी पांव गरम -गरम
छाँव  को ललक रहे तरस -तरस 
प्यास से गला गया चटक -चटक 
तन हुआ बेदम झुलस -झुलस 
पंछी छुप रहे कुटर- कुटर 
बयार खोजते रहे टुकुर -टुकुर 


छाँव आ चली सरक -सरक 
घर लौट चले हम डगर - डगर 
पंछी उड़ चले पतंग-पतंग 
अमराई झुक गई लचक -लचक 
उठने लगा धुआं महल -महल 
दौड़ पड़े बछड़े ठुमक -ठुमक 


रात आ गई द्वार -द्वार 
अभिसारिका गईं संवर -संवर 
बज उठीं पायल झनक- झनक 
छिपा चली सारंग मटक -मटक 
पंथ निहार रही अटक -पटक 
बेसुध सी लौट पड़ी सुबक -सुबक |


विद्या शर्मा ...



तिनका

मुझे , बहाकर ले गई 
एक धारा ,
तब , क्या खबर थी 
क्या होगा ?
कहाँ जाऊंगा ?
भंवरों में घिर गया 
तो ,
झिंझोड़ा जाऊंगा ,
पत्थरों से ,
टकरा गया तो ,
टूटकर लहरों में 
समां जाऊंगा ,
किनारा मिल गया तो ,
ठोकर से खेला 
जाऊंगा ,
बार -बार 
घूमता ही रहूँगा 
तभी समझ पाउँगा 
संसार चक्र को |


विद्या शर्मा ..

अमर बेल

एक बीज 
जाने कहाँ से 
आकार ,
वृक्ष बन गया 
किसी , पंछी ने 
अमर बेल का 
तिनका लाकर 
गिरा दिया ,
बेल , वृक्ष की 
जीवन धारा को 
चूसती रही ,
अपने आलिंगन में 
जकड लिया ,
धीरे -धीरे ,
वृक्ष , अस्तित्वहीन 
हो गया ,
जडहीन होकर 
धारा  शाई हो गया ,
लेकिन ,
अस्तित्व हीन लता 
अमरबेल बन गई |

विद्या शर्मा ...

क्या पाया , क्या दिया ?

हम ही जानते हैं ,
इतनी बड़ी 
जिंदगी में ,
क्या खोया ?
क्या पाया ?
झूंठे इल्जाम , झिड़क 
अवहेलना , विरक्ति 
स्त्री होने की जिल्लत ,
कमाऊ न होने की 
सजा ,
पढ़ी -लिखी होने की 
ईर्ष्या ,
क्या कम था ?
फिर भी ,
प्यार , विश्वास 
संस्कार , उम्मीद 
आशीर्वाद , साहस , उत्साह 
सब कुछ दे दिया |
शायद , एक 
रास्ता खोज 
सकूँ 
उजाले का |

विद्या शर्मा ..

नाम

नाम , अलग 
करता है ,
ओरों से ,
परिवार की 
पहचान है ,
नाम पुरुष है ,
अहंकार है ,
अमरता का बोध है ,
नारी ,
नाम की अधिकारिणी नहीं ,
बेटी !!
यह शब्द ,
पीहर तक 
सार्थक है ,
पति घर में 
,एक नए नाम 
का पीछा करते -करते 
अपना अस्तित्व ही 
भूल जाती है 
सिर्फ एक शब्द 
बच पाता है ,
औरत |
विद्या शर्मा ...

गंगा

ऊँचे -ऊँचे शिखरों पर 
श्वेत , धवल हिम पर 
उतरती सूर्य की 
रश्मियाँ ,
जहाँ इठलाती हैं ,
शशि की कलाएं 
अंगडाइयाँ लेती हैं ,
निशब्द निशा का 
मौन तोडती 
उषा , जहाँ 
हिमालय का गौरव 
बढ़ाते हैं ,
हर पल आँचल 
में समेटे ,
अठखेलियाँ करती ,
गंगा की लहरें ,
आँख मिचौली 
खेलती है ,
सतरंगी पत्थरों पर 
रास्ता बनाती माँ ,
इधर -उधर 
मचलती है,
पापा नाशनी
चिरप्रवाहानी,कल -कल करती 
सुख -संवृद्धि बरसाती 
समर्पित हो 
सागर में मिट जाती है . 
विद्या शर्मा ...

उपेक्षा

उपेक्षा 
पराजय का 
बोध कराती है ,
पराजित व्यक्ति 
दुखी होता है ,
दुःख और दर्द के 
साये में ही ,
कभी कभी बुलंदिया भी 
छू लेता है ,
जिन्हें शायद 
कभी नहीं पा 
सकता था ,
तभी तो ,
ध्रुव एक चमकता 
सितारा बन सका ,
कालिदास भी अमर 
काव्य रच सके ,
तुलसी भी ,
रामचरित की,
 रचना कर सके 
मैं , 
कुछ शब्दों के 
जाल ही बुन रही हूँ ,
न  , कभी कालिदास
 बन सकुंगी 
और न ,कभी 
मीरा .
विद्या शर्मा ...

Wednesday, March 24, 2010

बेटी

बेटी ,
सुन्दर , समझदार 
संस्कारी , ममतामई 
त्याग की मूर्ती 
होती है ,
अतिथि का आदर ,
घर की संभाल 
सब , भाता है उसे ,
पढना , लिखना 
गुडिया सजाना ,
प्यार बांटना 
सब  , जानती है वो, 
बेटी ,
माँ की प्रतिमूर्ति 
किसी के ,
कुटुंब की निर्मात्री,
 होती है |
बेटी ,
के चारो तरफ ,
पूरी दुनियां 
नजर आती है |
विद्या शर्मा ...

उच्छ्वास

ठन्डे गर्म उच्छवासों में 
जाने क्या -क्या ,
रिसता है ?
मेरी किसी 
श्वांस ने अभी तक ,
नहीं बताया ,
उसकी तपन में 
क्या -क्या घुला है ?
मीठी सी चुभन या 
दर्द का सैलाव ,
आशाओं का ज्वार -भाटा या
उद्गारों का रेला ,
आकान्छाओं का बिखराव या 
खुशियों का जश्न ,
उच्छवासों का दरिया 
सब बहा ले जाता है ,
न , बादल गरजे ,न 
बिजली चमकी 
सावन से आंसूं 
बरस गए ,
न , अगन बुझ सकी , न ,
भस्म बन सकी ,
झुलस गए सपने ,
उच्छवासों के 
मेले में , मैं , 
समधिद्थ सी ,
तमाशा देखती रही |
विद्या शर्मा ...

माँ की अंगुली

डगमग चलते 
शिशु की ,
अंगुली में 
माँ की उर्जा 
प्रवाहित है ,
तभी ,तो ,
साहस , उत्साह , संरक्षण का 
संचार निरंतर 
स्फूर्ति जगाता है ,
माँ की अंगुली से ,
संस्कार स्वयं 
रोपित होते हैं ,
माँ की , अंगुली से 
स्वर्गारोहण सा 
आभास होता है ,
अंगुली के पोरों से 
लगाया , काजल 
दिव्य प्रकाश सा 
फैलता है ,
माँ की अंगुली 
एक , मशाल सी 
जलाकर 
हमारी राहें 
रौशन करती है |
विद्या शर्मा ...

दर्द

दर्द , बनकर रहना 
क्या , आता है ?
सभी को ,
दर्द , पीकर 
क्या , जीना
 आता है ?
सभी को ,
दर्द , सिलकर 
लपेटना ,क्या 
आता है ?
सभी को ,
दर्द को ,
मुस्कराकर सहना 
क्या , आता है ?
सभी को ,
दर्द को ,
सीने में , दबाकर 
अदृश्य कर देना 
क्या ,
आता है ?
सभी को |
विद्या शर्मा ...

पेड़

सामने वाला पेड़ 
खुली किताब सा है ,
पन्ने -दर -पन्ने 
पढ़ते रहो ,
मौसम जब ,
हसीं होता है ,
मोटी -मोटी डालें 
गधांश बन जाती हैं ,
पतली डालें ,
वाक्यांश बनती हैं ,
वे , मिलजुलकर 
शब्दार्थ समझतीं हैं ,
अगणित कोमल कोपलें ,
अर्नव बन ,
वेदार्थ बताती हैं ,
लटकते सूखे पत्ते ,
त्रुटियों से ,
टपक पड़ते हैं ,
इस , वृक्ष का 
कभी कोई , पृष्ठ 
पलटा नहीं गया ,
कभी , उच्चारित नहीं किया ,
गुम- सुम सा नीड़ 
लोकोक्तियाँ कहता है 
जब , 
परिंदे चहचहाते हैं ,
चिड़िया , तोता , गिलहरी 
कबूतर सब ,
भाषा की बिविधिता 
की तरह ,
मुहावरे जैसे 
बरसाते हैं ,
सामने वाले पेड़ ,
के फल -फूल 
अलंकार से 
हमारे दिल को 
गुदगुदाते हैं ,
जाने , कबसे 
यह , वृक्ष !!
हमारे आँगन में ,
साहित्य सा 
बस गया है |
विद्या शर्मा ....

मर्द

यदि , मर्द हो ,
तो ,
पौरुष दिखाओ ,
क्यों डरते हो ?
स्त्री से |
जब , होती है 
किचिन में ,
पतीली में 
दाल, उगलती है 
भाप ,
जब , गीली लकड़ियाँ 
बहाती हैं , उसके 
आंसू ,
हाथ में बेलन लिए 
देती  है , वह
रोटी  को आकार,
तब , दिखाओ न ,
पौरुष |
डरते हो न , तुम !!
जब , बच्चे करते हों परेशान
मांगते हों नास्ता ,
दूध और रोटी 
तुम , ढूंढते हो 
मोज़े और टाई |
तब , मर्दानगी दिखाओ न, 
जाते हो , साथ में 
पिक्चर 
मिल जाये माशूका 
तब , चश्मा लगाकर 
आगे ही चलते जाते हो ,
अब , दिखाओ न,
तेवर ,
मर्द !! 
औरत की बेबसी को 
समझो ,
मर्दानगी के उद्गार के लिए 
देश की सीमाए 
बुलातीं हैं ,
वहां , 
दिखा दो , पौरुष |
विद्या शर्मा ...


Sunday, March 14, 2010

प्रतिमा

प्रतिमा ,
तुम रूप हो 
किसी का ,या 
जादू हो ,
किसी के नाजुक 
हाथों के 
पोरों की 
तुम , कला हो 
या 
कलाकार को तुम 
गढ़ती हो 
या कलाकार तुम्हें 
गढ़ता है |
तुम पसंद हो 
उसकी या 
वो पसंद है , तुम्हारी|
प्रेरणा हो 
तुम उसकी या 
प्रेरित है वो तुमसे ,
प्रियतम है वो 
तुम्हारा या 
प्रेयसी हो तुम 
उसकी |
साधिका हो तुम 
उसकी या 
साधक है वो 
तुम्हारा |
हे !! प्रतिमा !!
याचिका हो तुम 
उसकी या
याचक है वो 
तुम्हारा ?
क्या हो ????

विद्धया शर्मा ..

झरना

बहते हुए 
तुम,
 इस कदर 
वेग से ,
प्रवाहित हो 
रहे हो ,
सब कुछ भूलकर 
दौड़ लगा रहे हो ,
पल भर रूककर 
पीछे भी नहीं 
देखते हो ,
किसी के साथ 
चलने की 
अपेक्षा भी नहीं 
करते हो ,
हर बंधन को 
तोड़कर ,
निरंतर चलते ही जा 
रहे हो ,
किसके लिए ?
शायद ,
रूठी प्रेमिका को 
अपने अंक में 
समेट लेना 
चाहते हो ,
या फिर 
किसी,
 अजनवी की
 खोज में
खाक छान रहे हो |

विद्धया शर्मा .. 

तनहाइयाँ

 जीवन के 
झंझावातों के 
सैलाव में ,
डूबकर भी ,
तैरती रही |
अपनों से 
दूर -बहुत दूर 
होती रही ,
सभी मेरे साथ
तपते रहे ,
जीवन की 
भट्टी में ,
और तनहाइयों को 
मथती रही |
बच्चियां भी 
विदा ले चुकीं हैं ,
बंद रास्तों पर आकर 
ठहर सी गई हूँ ,
बहता सा जीवन भी 
एकाकी लगता है |

विद्धया शर्मा ..

सुमन

हे सुमन !!
तुम ,
खिलते , महकते 
मुस्कराते हो ,
डाल से 
तोड़ने पर भी ,
व्यथित नहीं होते ,
हमारे मन को
मुदित , पुलकित 
और आनंदित 
करते हो ,
निष्काम , निर्द्वन्द रहकर 
असीमितता 
दिखाते हो ,
मौन रहकर भी 
ज्ञान फैलाते हो ,
मन करता है 
अपना , कलुष 
तुमसे बदल लूं ,
हे सुमन !!

विद्धया शर्मा.. 

माँ

वह शक्ति 
केवल तुम ही हो 
माँ ,
जो , मुझे 
दूसरों की नज़रों से 
बचा कर 
रखती है |
जब , 
छल -कपट 
झूंठा व्यवहार 
अपशब्द 
मुझे पीड़ा देते हैं ,
तब ,
तुम ही 
सांत्वना देती हो |
जब ,
तीखी ,अशिष्ट , निर्लज्ज 
निगाहें मुझे ,
भयाक्रांत करती हैं 
तब ,
तुम ही 
आँचल में 
समेत लेती हो माँ ,
अहंकार से सना 
चेहरा जब ,
मुझे ,
घायल करता है 
तब ,
तुम ही 
मुझे , शीतल छायादार 
वृक्ष की तरह 
आसरा देती हो ,
माँ |

विद्धया शर्मा ..