Saturday, February 28, 2015

देश -प्रेम

गुनिया की शादी जमीदार परिवार में हुई थी , १९६० में जमीदारी तो रही नहीं लेकिन उसकी ठसक बची हुई थी , दो की जगह एक सब्जी से खाने की आदत बन गई थी , रहन -सहन सब राजसी था ,लड़कियों की पढाई के लिए घर पर ही व्यवस्था की जाती थी , कॉलेज भेजने के लिए साधन उपलब्ध नहीं थे , गांव तक बस नहीं आती थी , स्वयं जा नहीं सकते थे उसके लिए वहां की सुविधा भी नहीं थी , इसलिए अधिकांश लड़कियां घर के काम में ही हाथ बटाती थीं , गुनिया की जब शादी हुई तब वो १७ बरस की थी , १८ बरस की युवा बिटिया घर में कुवारी थी , पर जमीदार साब को चिंता नहीं थी।

गुनिया की माँ ने बचपन में ही समझा दिया था कि ससुराल ही तुम्हारा घर है , वहीँ से लड़की की अर्थी उठती है , यहाँ आने पर घर के एक पुरुष से मिलना हुआ जो दो बार युद्ध में भाग ले चुके थे और अपने मैडल एक थैले में हर समय साथ रखते हैं , न जाने कब जरूरत पड़ जाय , जब अपने गांव लादूखेड़ा आते तो हम सबसे मिलने भी अवश्य आते , जब भी समय मिलता युद्ध के किस्से सुनाते रहते , कभी जब जरूरत होती तो खलिहान पर भी सोने चले जाते , उनके पास बन्दूक रहती थी , गांव वाले थोड़ा डर कर रहते थे , हर बार की छुट्टियां हम सबके पास ही निकालते थे , बच्चे दौड़ -दौड़ कर उनके काम करते थे।

मंगल बाबा एक बार नहीं आये तो सभी उनकी याद कर रहे थे , उनकी शादी नहीं हुई थी इसलिए हम लोग ही उनके बच्चे थे , एक बार आर्मी भर्ती का विज्ञापन निकला तो बाबा ने फार्म लेने के लिए लाइन में भूखे प्यासे शाम कर ली , जब नंबर आया तो बाबू से बोले - बेटा !! एक फार्म देना , बाबू ने बाहर झांक कर देखा तो एक बुजुर्ग खड़े हैं , आपकी उम्र आराम करने की है और उन्हें फार्म नहीं दिया गया। घर तो आ गए लेकिन किसी को नहीं बताया क्या हुआ था , थोड़े दिन रहकर अपने गांव चले गए।

दुसरे बरस फिर जगह निकली और बाबा फार्म लेने चले गए क्योंकि गांव में उनका मन नहीं लगता था , पहला काम किया की सर के बाल कटवा लिए , दाढ़ी मूछ साफ़ करवा ली , टोपी लगाकर लाइन में लग गए और कड़क आवाज में कहा -एक फार्म दो , बाबू ने बाहर झाँका , और बोला -आप अंदर आइये , आपको यहीं फार्म मिलेगा ,जब बाबू ने देखा कि बाबा , ने हुलिया ही बदल दिया है तब बड़े अदब से बोला - आप क्यों आर्मी में जाना चाहते हैं , अब आपकी उम्र नहीं वहां जाकर लड़ने की , तब बाबा ने उसे अपने सर्टिफिकेट और टंगे दिखा दिए और बोले अब तो फार्म देगा , बाबू , घबरा गया उठकर सलूट किया और बोला - अब देश की रक्षा करने के लिए हम हैं आप आराम करें , निश्चिन्त रहें।


शाम को बाबा घर आये और दर्द भरी कहानी सबको सुना दी क्योंकि सभी पूछ रहे थे बाल क्यों हटवाए ? अब हर सवाल का जबाव क्या देते तो बताना ही पड़ा , बाबा तो अब नहीं रहे लेकिन उनकी देश भक्ति आज भी हम सभी को उन्हें सलूट करने को बाध्य करती है।  बहुत मुश्किल से मिलते हैं ऐसे जाबांज।

विद्या शर्मा 

Friday, February 27, 2015

पहली बस यात्रा

करीब ४५ बरस पहले की बात है , मैं , अपनी छोटी बहन कामायनी और उसके दो बरस के बेटे के साथ गाजियाबाद के लिए निकल पड़े , क्योंकि हमारे बड़े भाई का बच्चा गुजर गया था , उनके पास जाना जरूरी था , हम आगरा से बस में सवार हुए बस स्टैंड के लिए जो तीन किलोमीटर दूर था घर से , वहां पता चला कि खुर्जा के लिए बस है , गाजियाबाद की बस का अभी कोई पता नहीं कब आये , हम लोग उसी बस में बैठ गए , खुर्जा पहुंचकर पता चला गाजियाबाद की बस खड़ी है तब हम उसमें बैठ गए , हमारे तो होश उड़े हुए थे पता ही नहीं था कहाँ से कहाँ जायेंगे तो पास रहेगा , बच्चा साथ था , सभी राहगीरों ने हमारा साथ दिया और हम भाई के घर तक पहुँच गए। 


दो दिन वहां रुकने के बाद हम लोग वापस जाने का सोचने लगे , भाई भाभी बहुत दुखी थे , उनका बच्चा नहीं रहा था , लेकिन ईश्वर की इच्छा के सामने क्या कर सकते थे , हम लोग आगरा के लिए निकल गए , वहां से भाई ने बिठा दिया था और समझा दिया था कि कहाँ उतरना है , लेकिन अलीगढ आने पर हमने विचार किया कि कौन रोज निकलना होता है चलो बुआजी से भी मिलते चलें , हमारे पास उनका पता भी नहीं था ,बस इतना मालूम था कि उनके यहाँ ताले बनाये जाते हैं , हम अलीगढ़ पर उत्तर गए वहां से नईबस्ती के लिए रिक्शा किया लेकिन पता चला कि वहां सुरेश चन्द्र शर्मा नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता , रिक्शे वाला हमारे साथ ही घूमता रहा पर कुछ भी पता नहीं चला। 


तभी एक खद्दरधारी  व्यक्ति हमारे पास आये और हमारी परेशानी पूछने लगे , शाम होती जा रही थी हम अपने निर्णय पर दुखी हो रहे थे , बहुत समय से आप लोग परेशान हैं ,बताएं क्या मसला है , तब हमने उन्हें सारी कहानी बताई , सज्जन बोले - आप यहीं बैठें , मैं अभी पता लगाकर आता हूँ , नेता जी पहले तो बाजार गए ,वहां पता लगाया कि ताले कहाँ बनते हैं , पता चला कि अब उनका काम बदल गया है , बस्ती में नहीं कटरा में रहते हैं। पता लगाने में उन्हें देर हो रही थी , हम लोग परेशान थे कि आगरा भी जाना है , क्या करें ? तभी सोचा कि वापस चलते हैं , बच्चा भी दुखी करने लगा था और हम आगरा की बस में बैठ गए जो आखिरी बस थी। 


तभी , भागते हुए नेता जी आये और बोले - आपके फूफाजी का पता लग गया है , नीचे उतरें , कल चली जाना , मैं स्वयं छोड़कर आऊंगा , चिंता न करें , हमारी टिकिट वापस करवा दी , हमें एक दुकान पर बिठाकर बोले -मैं आपके घर से किसी को बुलाकर लता हूँ , आप यही बैठें , १० मिनट बाद बुआजी के बेटे के साथ वे सज्जन आये और पूछा -इन्हें पहचानती हो या नहीं , हमारे साथ घर तक गए , अगर जरूरत हो तो ,मैं ,दुकान पर ही मिलूंगा आ जाना। हम सोच रहे थे ईश्वर ने कितना ख्याल रखा हम लोगों का , पहली बार बाहर निकले थे , सभी भले लोग मिले , कोई परेशानी नहीं हुई। हम इतने मूर्ख थे कि उनका धन्यवाद भी नहीं किया , बरसो बीत गए आज भी याद आते हैं वो पल ,जब हम घर से निकल गए थे।  सभी ने अपने बच्चों सा हमारा ध्यान रखा था। 

विद्या शर्मा 

परिवरिश

मणि हमारी बड़ी बहन राजस्थान में रहती थीं , प्रतिष्ठित वकील साब के परिवार में ब्याही थीं , उनके पति भी वकील थे पर उनकी वकालत बिलकुल नहीं चलती थी , परिवार का पूरा खर्च हमारे ताऊजी उठाते थे क्योंकि मणि उनकी अकेली संतान थीं , बड़े लाड -प्यार में पली थीं , पढाई के अलावा सारे काम वो कर लेती थीं , खाना बहुत ही स्वादिष्ट बनाती थीं , हम सब लोग अक्क्सर उनके बनाये खाने से खुश होते थे , कोई अपना - पराया नहीं था , सन १९५० में उनकी शादी कर दी गई जब कभी मौका मिलता हम लोग भी मणि दी के पास घूमने आते थे ,


एक बार उनकी बेटी के जन्म दिन पर हम लोगों को जाने का अवसर मिला , वहां संगीत का आयोजन रखा गया था जिसमें उनकी एक सहेली के साथ १२ साल का लड़का भी था जो बहुत अच्छी ढोलक बजा रहा था और बहुत ही मधुर स्वर में गाने भी गा रहा था , हम लोग बहुत ही अचम्भित थे क्योंकि हमने पहली वॉर किसी लड़के को इस तरह बजाते गाते सुना था , शारदा के पास लड़का बचपन से ही था , छोटे मोटे काम करता था और संगीत सीखता था , भारतीय त्योहारों में गाने वाले , होली , दिवाली , शादी , बधाई , भजन जो चाहो उससे गवा लो , सब लोग उससे परिचित थे , शारदा को योगी की वजह से सब जानते थे , सबके आकर्षण का केंद्र बन जाता था।


हमारे गांव चावली के पास एक गांव नगला लाले था , वहां का सैनिक परिवार उस लड़के की ग्रहण करने की क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ , मेजर कुमार अपनी पत्नी के साथ आये हुए थे , शारदा से उस लड़के को अपने साथ ले जाने का आग्रह किया , हम इसको पढ़ाना चाहते हैं , इसकी नौकरी लग जाएगी तो अच्छा रहेगा सभी इस प्रस्ताव का समर्थन किया और काफी सोच -विचार के बाद कुमार योगी को अपने साथ लेन में सफल हो गए , कुमार ने उसे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिला दिया , बच्चा बुद्धिमान था , सब कुछ बहुत अच्छी तरह से सीख लिया , कोई समझ ही नहीं पाता था कि योगी इनका अपना बेटा नहीं है , १२वी पास करने के बाद उसकी नौकरी लग गई , कुमार का घर योगी भरद्वाज के संगीत प्रतियोगिता में पाये उपहारों से भरा हुआ था , अब तो योगी भी भूल चूका था कि वो कहाँ से आया है कौन है ,

२० साल बाद एक बार फिर मणि दी की बेटी की शादी में जाने का मौका मिला , कुमार दंपत्ति अपने होनहार बेटे योगी के साथ वहां आये हुए थे , शारदा तो उसे देखकर खुश थी , हम लोग अचम्भित थे कितना रौबीला युवक बन गया था योगी , सभी उसके सुखद भविष्य के लिए खुश थे। अब तो वो भी देश सेवा के लिए समर्पित था।

विद्द्या शर्मा 

Thursday, February 26, 2015

वारा देवी

कानपुर के एक कस्वे में दो मंजिले घर में ताई , चाची के बच्चों के साथ हम १५ बच्चे रहते थे , पास में ही थाने में ताई की सहेली के पति दरोगा के पद पर पदस्त थे , इसलिए हम लोग कभी -कभी थाने भी जाया करते थे , हमारी खातिरदारी सिपाही किया करते थे , दरोगानी को हम लोग मौसी कहते थे , बड़ी घमंडी थीं , उनके बेटे का नाम विजय था हम उससे बात नहीं करते थे , वहां से करीब ६ किलोमीटर दूर वारा देवी का मंदिर था , नव दुर्गा के समय वहां मेला लगता था , सब लोग पैदल ही वहां जाया करते थे , इसबार ताई के साथ माँ भी चलने को तैयार हो गईं , यातायात के कोई साधन नहीं थे , जंगल में लोग जाया करते थे ,

कभी मेला नहीं देखा था इसलिए हम लोग बहुत ही उत्साहित थे , कोई थकन भी नहीं लग रही थी , सभी लोग देवी की पूजा के लिए सामग्री ले जा रहे थे , कहीं खाने की चीजें बिक रही थीं कहीं घर ग्रहस्ती की वस्तुएं बिक रही थीं , किसी ने अपनी जीभ में आर -पार तार डाल रखा था , कोई पीठ पर कोड़े बरसा रहा था , क्या अजीब सा मेला था , वो सब देखकर हम लोग व्याकुल हो गए और पिताजी से घर जाने के लिए बोलने लगे , देवी जी के पास दर्शन किये तो वहां पुजारी जी सभी को भस्म लगा रहे थे , हम आश्चर्य से सब देख रहे थे , आस्था का पर्व चल रहा था , श्रद्धा और भक्ति का पर्व था , मिठाइयों , खिलौनों का जश्न हम बच्चों के लिए था ,

आज सभी सुविधाएँ देवी जी के स्थल तक जाने के लिए हैं , लोगों की आस्था बदली नहीं है , आज भी हजारों लोग जाते हैं , हम बुड्ढे हो गए पर वारा देवी का मेला हमारी यादों में आज भी लगता है।

विद्या शर्मा 

पोखर

जेठ की गर्मी में जब घर का काम काज ख़त्म हो जाता तब , घर की बुजुर्ग दादी बुआ , ताई ,चाची सब सूत का खेस जमीन पर बिछा कर ही खर्राटे लेने लग जाती थीं , गांव में अधिकतर खेस का प्रयोग ही किया जाता था क्योंकि वह गांव के जुलाहे द्वारा ही बनाये जाते थे।  उसी समय हम बच्चों को बाहर जाने का मौका मिलता था , चुपके से सबकी आँख बचाकर बच्चों की टोली बाहर जाने के लिए तैयार हो जाती थी , हमारे चबूतरे पर हर समय भीड़ रहती थी क्योंकि पक्का बना था और नीम के पेड़ से ठंडी हवा जो आती रहती थी , चबूतरे पर एकत्र होकर यह निश्चय किया जाता था कि आज क्या खेलना है , कभी आँख मिचौली , कंकड़ खेलना कभी बम्बे में नहाना और कभी पोखर पर जाकर मस्ती करना यही मुख्य खेल थे।


बच्चों को सबसे ज्यादा मजा तो पोखर पर ही आता था , वहां एक आम का पेड़ था , उस पर बड़े मीठे आम आते थे , हालाँकि वहां एक रखवाला रहता था जो पेड़ के नीचे खटिया बिछाकर सोता रहता था , कभी जब आम नीचे गिर जाते तब उन्हें उठाकर स्वाफी में बांध लेता और सो जाता , गांव के घरों की मरम्मत करने के लिए इसी पोखर की मिटटी ली जाती थी इसलिए वहां किसी न किसी का आना -जाना लगा रहता था , हम लोग पास के खेतों में छुप जाते या कुछ खेलने का नाटक करते और धीरे से पेड़ पर चढ़कर कच्चे आम तोड़ते , जैसे ही उसकी आँख खुलती हम पकडे जाते और सरे आम छीनकर डंडे से मारने का प्रयास करता , हम लोग एक दुसरे को छुड़ाकर भागते और उस बुड्ढे को कोसते जाते , एक आम के लिए इतनी मेहनत करते कि पूरा दिन ही निकल जाता योजना बनाते हुए।

कभी कभी जब रखवाला नहीं होता तब तो मौज ही होती सारे आम बटोरकर घर की तरफ दौड़ लगा देते , कभी जब ताऊजी या भाई के साथ पोखर पर जाते तब कुछ नहीं बोलता और सारे आम थैले में भर देता , दुपहर होते ही रखवाला बदल जाता था , आज भी गांव भर की भैसें वहीँ पानी पीती हैं लेकिन अब कोई मिटटी से घर नहीं सुधारता , आम का पेड़ भी बूढ़ा हो गया है लेकिन फल अभी भी देता है , आज भी गांव भर के बच्चे वहीँ खेले रहते हैं , लेकिन जो मस्ती हम बच्चों ने ५० वी सदी में की अब कोई नहीं कर सकता। पोखर भी तो सूखकर गड्डा बन गई है।

विद्या शर्मा 

जूते

उत्तर -प्रदेश का गांव राजपुर हम लोग किसी रिश्तेदार की शादी में ताई के साथ गए थे , उस समय मैं , आठ बरस की रही होउंगी , बड़ा सा कच्चा घर था , आँगन इतना बड़ा था कि पूरी बारात एक साथ खाना खा ले , लड़की की शादी में उस दिन दावत थी , पहले तीन से चार दिन में बारात विदा होती थी। दावत चल रही थी जिसमें कई मिठाइयां , पूरी , सब्जी , दही बूरा , रायता सब शामिल था , आने वाले लोग ब्लास्त से नाप कर पूरियां खाते थे , दावत खा कर लोग उठे तभी , शोर मचा कि किसी का जूता चोरी हो गया , जो उस समय के हिसाब से कीमती था।

जूता खोने से रिश्तेदार तो जैसे आपे से बाहर होते जा रहे थे , दुःख इसलिए अधिक था क्योंकि जूता पड़ोस के गांव के एक ऐसे लड़के के थे जिसकी शादी दस दिन पहले ही हुई थी , जूता मांगने वाला उसका दूर का भाई था , उस समय जूता उधार मांग कर काम चलाया जाता था , कभी छोटा जूता या बड़ा जूता भी चल जाता था , जूते उधार मांग कर स्वाफी में लपेट कर उत्सव तक जाते थे , वहीँ जाकर पहन लेते थे , हर कोई की हैसियत नहीं होती थी कि जूते पहन सके , इसलिए यूँ ही काम चलाया जाता था।  दूसरे का जूता होता था तो हिफाजत भी की जाती थी , जूता क्या खोया कोहराम मच गया , सुख -चैन , खाया पीया सब बेकार हो गया , सब जगह खोजने के बाद भी जूता नहीं मिला।


जिसने जूते पर हाथ साफ़ किये थे वो तो , पहले ही निकल गया था , लड़की के भाई ने आस्वासन दिया हम जूते का पता लगवाएंगे , जूता अपना होता तो और बात थी , मांगे का जूता बेचैन किये था , सब जगह उसे जूता ही नज़र आ रहा था , किसी से कह भी नहीं सकता था कि जूता मेरा नहीं किसी और का है। जूता मिलना तभी संभव था जब उसी गांव में किसी की शादी हो , सबको पता था जूता चोरी करना कोई हंसी नहीं है , लड़की के भाई ने अपने दोस्तों को खोज में लगा दिया , हिदायत दी गई कि जूता देखते ही बताया जाय।

दो माह के भीतर ही एक शादी का आयोजन होने वाला था , सबकी नज़रें लगी थीं कि कौन जूते पहनकर आता है , गांव के जमीदार के घर शादी थी , नए जूते खरीदने की औकात ही नहीं थी तो खोज बीन ही की जा सकती थी , दावत शुरू हो चुकी थी , उसकी निगाहें जूतों को ही खोज रहीं थीं , तभी भाई के दोस्त ने बताया भाई !! जूते तो जमीदार का रिश्तेदार पहने है , तभी यह तय हुआ कि चुपचाप जूते लेकर जाओ जिसके थे वापस करो , स्वाफी में जूते बांधकर दावत का भरपूर मजा लिया और गांव जाकर दोस्त को जूते वापस किये क्षमा याचना के साथ। उस दिन से यह गांठ बाँध ली कि अब किसी से उधार कुछ भी नहीं लिया जायेगा। इस तरह जूतों का किस्सा ख़त्म हुआ।

विद्या शर्मा




Wednesday, February 25, 2015

विद्या शर्मा की कहानियाँ - सायकिल की खरीदी

परीक्षा समाप्त होते ही हम लोग पैतृक गांव चावली चले जाया करते थे , पिताजी ही छोड़कर जाते थे , गांव में ताऊजी राम दयाल शर्मा अपनी पत्नी के साथ रहा करते थे , ताऊजी का एक बेटा था जो कानपुर में हमारे साथ ही रहता था , वहीँ पढ़ते भी थे हमें गांव में दो महीने के लिये छोड़ दिया जाता था।

एक दिन सो कर उठे तो पता चला कि ताऊजी टूंडला गए हैं , उनके जिगरी दोस्त पास के गांव चिरौली से आये थे ,आज उन्हें सायकिल खरीदनी थी ,उस समय न तो सड़क थीं और न ही आने जाने के लिये कोई साधन होते थे अतः सुबह अँधेरे ही निकलना पड़ता था।  अगर पहले से पता हो कि जाना है तो दो चार पराठे अचार के साथ रख लिए जाते थे लेकिन ताऊजी को अचानक जाना पड़ा तो नास्ता रखने का प्रश्न ही नहीं होता। गर्मी से बचने के लिए सुबह ही निकल गये।

धूप चढ़ते ही वे टूंडला पहुँच गए , दुकान अभी नहीं खुली थी तो किसी पेड़ के नीचे विश्राम करना पड़ा , हवा का झोंका लगा तो सो गए , गिरिवर जी ने करबट ली तो देखा ताऊजी के अंगोछे पर कुत्ता सो रहा है , अरे  !!! ठेकेदार !! उठो कुत्ता तुम्हारे संग सो रहो है ,ताऊजी गांव की हाट का ठेका लेते थे इसलिये सभी लोग उन्हें ठेकेदार कहते थे , दोनों सायकिल की दुकान पर पहुँच गए , कीमत १३ रुपये जो आठ साल पहले १० रूपये थी , अच्छा अंधेर है हमारा भाई १० की ले गया था। गिरिवर ने मन पक्का किया और सायकिल ले ली।

सायकिल कसाई गई क्योंकि सभी हिस्से अलग -अलग ही मिलते थे , रसीद भी दे दी गई , सायकिल लेकर बाहर आ गए , ताऊजी खुश थे कि अब पैदल नहीं चलना पड़ेगा ,चलो गिरिवर !! जल्दी गांव पहुंचे वरना धूप तेज हो जाएगी ,हाँ -और सायकिल को सर पर रखकर चल दिए , अरे !! ये क्या करते हो ? सायकिल पर ही चलते हैं , का कह रहे हो ठेकेदार !!  नई सायकिल है ,चलो बेग , और आगे -आगे चल दिए ताऊजी मन मारकर उनके साथ चल दिए।


तीन चार किलोमीटर चलने के बाद एक गांव मैं ही गिरिवर रुके ,वहां पानी पीया थोड़ी देर विश्राम किया , सायकिल देखने के लिए वहां भी भीड़ लग गई , गांव वाले भी बोल रहे थे सायकिल से जाओ पर गिरिवर जी पर कोई असर नहीं पड़ा , नाय सायकिल के पहिया अभी ते घिस जायेंगे ,वे नहीं माने। सायकिल सिर पर रखकर गिरिवर आगे -आगे ताऊजी पीछे -पीछे थके हुए चल रहे थे। जब गांव के खेत दिखे तब ताऊजी ने कहा अब , तो सायकिल से चलो , लोग क्या कहेंगे , पर गिर्रा तो फिर भी न माना और घर के चबूतरे पर सायकिल उतार कर निढाल होकर गिर गए , चिरौली तो अभी और चार किलोमीटर जाना था तो गिरिवर वहीँ पसर गए। चबूतरे पर लोगों की भीड़ थी सायकिल देखने के लिए।

विद्या शर्मा