Sunday, March 1, 2015

प्रवासी भारतीय

बरसों पुरानी बातें हैं लेकिन आज भी याद आती हैं तो कल की सी बातें लगतीं हैं , बाबा यानि ससुर जी के चचेरे भाई मजदूरों के काफिले के साथ काम की तलाश में रंगून चले गए थे , काफी बरस तक वहां रहने के बाद वे भारत आये और फतेहाबाद अपने मूल निवास स्थान गए लेकिन वहां किसी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनकी शादी वहीँ की स्त्री से थी , बाबा के पास आये तो उन्होंने अपने ही घर में उन्हें रहने की आज्ञा दी , जमीदार थे , घर में सबसे बड़े थे , कोई उनकी आज्ञा टाल नहीं सकता था , कई बरसों तक बलदेव जी वहीँ रहे जब जमा पूंजी ख़त्म हो गई तब वापस रंगून चले गए , वहां से सूरीनाम चले गए , कभी -कभी बाबा को खत लिखा करते थे , बाबा भी उसका जबाव दे दिया करते थे , जब बलदेव जी की मृत्यु हुई तब उनके बच्चों को पता चला कि भारत में उनके रिश्तेदार भी हैं और उनसे पत्राचार भी है।

बलदेव जी के बिस्तर के नीचे भारतीय पत्रों का जखीरा मिला था , उनके बच्चे जो कोई डॉक्टर था , कोई व्यापारी सब अचंभित थे लगभग ५० बरस बाद उनके बेटे ने मेरे पति हर चरण लाल जी से संपर्क साधना शुरू किया , अपनी दिनचर्या की भागमभाग में भूल जाया करते थे कि कोई प्रवासी भारतीय हमारे बंधू भी हैं , तभी उन सभी बहन भाइयों ने निश्चय किया कि भारत जायेंगे और सब लोग एक साथ पति के ऑफिस पहुँच गए क्योंकि वे अक्क्सर वहीँ के पते से पत्र डालते थे , उनकी बड़ी बहन जिसने कभी भी मेरे पति को नहीं देखा दूर से ही उन्हें पहचान लिया और गले मिलकर देर तक रोतीं रहीं , तब लगा कि दूरियां भी हमारी जड़ों को उखाड़ नहीं सकती।

शाम तक उन्हें घुमाकर घर ले आये , खाना खाकर वे अपने होटल चले गए , हफ्ते भर तक पति अपने साथ उन्हें घुमाते रहे और फिर जाने का समय भी आ गया , जाने से पहले बड़ी बहन ने घर की मिटटी अपने रूमाल में बाँध ली , इसे मंदिर में रखूंगी , मेरे पूर्वजों के रज कण हैं , सभी भाबुक हो गए।

विद्या शर्मा 

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