Monday, March 9, 2009

तुम


न,जाने को मना किया

न , बाँध कर रखा कभी ,

किंतु मजबूरी क्या थी ?

दामन तुम्हारा हम ही जकडे थे ।


बुलाकर मुझे तुम,

खो जाते हो कहीं ,

मिल जाओगे मुझे ,

तब बात करुँगी ।


दिल खोलते ही

नज़रें झुका लीं तुमने अगर

दीदार होता तो ,

जान पाते प्यार था या नफरत ।


तडफ -तडफ कर मरते रहे

मर -मर कर जीते रहे ,

आग जो लगाई थी तुमने

उसी में हम झुलसते रहे .


तुम्हारी झुकी नज़र ही

बढ़ा रही थी क़यामत ,

बरछी सी घोप दी दिल में

किसी को पता न चला .


तमन्ना थी उजाला देने की ,

जलते रहे पल -पल ,

उजाला कितना दे सकी

यह , जाना न कभी ।

विद्या शर्मा .....




1 comment:

Rajat Narula said...

Bahut is khubsurat rachna hai....