Friday, March 6, 2009

बचपन


प्यारे बचपन

अब मुझे तू

आवाज न दे ।

क्योंकि ,

तेरी ओर देखते ही

आँखें भर आतीं हैं ।

दिल तड़फ उठता है ,

शरीर मैं ,

स्फूर्ति तो आती है ,

किंतु

कुछ क्षणों के लिए ।

तुमने

मुझे बुलाया है

अनेकों बार ,

साथ चलने को ।

पर मैं ,

विवश हूँ ,

अब मैं ,

दूर ..बहुत दूर

निकल आई हूँ ।

मेरी तो ,

परछाई भी नही मिलेगी

क्योंकि , अब मैं ,

जेठ की

दुपहरी में खड़ी हूँ ।

इसलिए ,

मेरे प्यारे बचपन !!

अब मुझे ,

आवाज न दे ।

विद्या शर्मा ....

1 comment:

Pradeep Kumar said...

ठीक लिखा है बचपन के दिन भला कौन भुला सकता है ! तभी तो कोई कहता है की आया है मुझे फिर याद वो जालिम . और कोई कहता है बचपन के दिन भी क्या दिन थे और कोई मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन . मतलब ये कि चाहे जैसे कहो सच तो ये है कि बचपन ही ज़िन्दगी का सबसे हसीं और मस्त दौर होता है .
भावों को शब्द देने के लिए बधाई दें