श्वेत , धवल हिम पर
उतरती सूर्य की
रश्मियाँ ,
जहाँ इठलाती हैं ,
शशि की कलाएं
अंगडाइयाँ लेती हैं ,
निशब्द निशा का
मौन तोडती
उषा , जहाँ
हिमालय का गौरव
बढ़ाते हैं ,
हर पल आँचल
में समेटे ,
अठखेलियाँ करती ,
गंगा की लहरें ,
आँख मिचौली
खेलती है ,
सतरंगी पत्थरों पर
रास्ता बनाती माँ ,
इधर -उधर
मचलती है,
पापा नाशनी
चिरप्रवाहानी,कल -कल करती
सुख -संवृद्धि बरसाती
समर्पित हो
सागर में मिट जाती है .
विद्या शर्मा ...
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