जब , छोटी थी
मां !!
अपने पांव पर
चलने लगी थी
तब ,
तुम्हारा लहराता आँचल
मुझे , आकृष्ट
करता था ,
एक छोर पकड़कर
खुश होती थी
अब , जब
बड़ी हो गई हूँ ,
जब , कभी डर
जाती हूँ ,
बाबा की फटकार से
तब ,
तलाशती हूँ ,
वही , आँचल
तुम्हारा लहराता
आँचल
मुझे , छुपा लेता है
अपने भीतर
बाबा , हताश हो चले जाते
अब ,
मेरा आँचल
तुम्हारे जैसा
हो गया है
पर ,
मां !!
मुझे, वह शकून
नहीं मिलता
आज भी ,
उसी , आँचल को
तलाशती हूँ
जो , मुझे
अपने आगोश में
छुपा ले ,
सारी परेशानियों
चिंताओं से
मुक्त कर दे
अथाह शांति की
नींद सुला दे .
विद्धया शर्मा
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