सामने वाला पेड़
खुली किताब सा है ,
पन्ने -दर -पन्ने
पढ़ते रहो ,
मौसम जब ,
हसीं होता है ,
मोटी -मोटी डालें
गधांश बन जाती हैं ,
पतली डालें ,
वाक्यांश बनती हैं ,
वे , मिलजुलकर
शब्दार्थ समझतीं हैं ,
अगणित कोमल कोपलें ,
अर्नव बन ,
वेदार्थ बताती हैं ,
लटकते सूखे पत्ते ,
त्रुटियों से ,
टपक पड़ते हैं ,
इस , वृक्ष का
कभी कोई , पृष्ठ
पलटा नहीं गया ,
कभी , उच्चारित नहीं किया ,
गुम- सुम सा नीड़
लोकोक्तियाँ कहता है
जब ,
परिंदे चहचहाते हैं ,
चिड़िया , तोता , गिलहरी
कबूतर सब ,
भाषा की बिविधिता
की तरह ,
मुहावरे जैसे
बरसाते हैं ,
सामने वाले पेड़ ,
के फल -फूल
अलंकार से
हमारे दिल को
गुदगुदाते हैं ,
जाने , कबसे
यह , वृक्ष !!
हमारे आँगन में ,
साहित्य सा
बस गया है |
विद्या शर्मा ....
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