Thursday, February 26, 2015

पोखर

जेठ की गर्मी में जब घर का काम काज ख़त्म हो जाता तब , घर की बुजुर्ग दादी बुआ , ताई ,चाची सब सूत का खेस जमीन पर बिछा कर ही खर्राटे लेने लग जाती थीं , गांव में अधिकतर खेस का प्रयोग ही किया जाता था क्योंकि वह गांव के जुलाहे द्वारा ही बनाये जाते थे।  उसी समय हम बच्चों को बाहर जाने का मौका मिलता था , चुपके से सबकी आँख बचाकर बच्चों की टोली बाहर जाने के लिए तैयार हो जाती थी , हमारे चबूतरे पर हर समय भीड़ रहती थी क्योंकि पक्का बना था और नीम के पेड़ से ठंडी हवा जो आती रहती थी , चबूतरे पर एकत्र होकर यह निश्चय किया जाता था कि आज क्या खेलना है , कभी आँख मिचौली , कंकड़ खेलना कभी बम्बे में नहाना और कभी पोखर पर जाकर मस्ती करना यही मुख्य खेल थे।


बच्चों को सबसे ज्यादा मजा तो पोखर पर ही आता था , वहां एक आम का पेड़ था , उस पर बड़े मीठे आम आते थे , हालाँकि वहां एक रखवाला रहता था जो पेड़ के नीचे खटिया बिछाकर सोता रहता था , कभी जब आम नीचे गिर जाते तब उन्हें उठाकर स्वाफी में बांध लेता और सो जाता , गांव के घरों की मरम्मत करने के लिए इसी पोखर की मिटटी ली जाती थी इसलिए वहां किसी न किसी का आना -जाना लगा रहता था , हम लोग पास के खेतों में छुप जाते या कुछ खेलने का नाटक करते और धीरे से पेड़ पर चढ़कर कच्चे आम तोड़ते , जैसे ही उसकी आँख खुलती हम पकडे जाते और सरे आम छीनकर डंडे से मारने का प्रयास करता , हम लोग एक दुसरे को छुड़ाकर भागते और उस बुड्ढे को कोसते जाते , एक आम के लिए इतनी मेहनत करते कि पूरा दिन ही निकल जाता योजना बनाते हुए।

कभी कभी जब रखवाला नहीं होता तब तो मौज ही होती सारे आम बटोरकर घर की तरफ दौड़ लगा देते , कभी जब ताऊजी या भाई के साथ पोखर पर जाते तब कुछ नहीं बोलता और सारे आम थैले में भर देता , दुपहर होते ही रखवाला बदल जाता था , आज भी गांव भर की भैसें वहीँ पानी पीती हैं लेकिन अब कोई मिटटी से घर नहीं सुधारता , आम का पेड़ भी बूढ़ा हो गया है लेकिन फल अभी भी देता है , आज भी गांव भर के बच्चे वहीँ खेले रहते हैं , लेकिन जो मस्ती हम बच्चों ने ५० वी सदी में की अब कोई नहीं कर सकता। पोखर भी तो सूखकर गड्डा बन गई है।

विद्या शर्मा 

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