Thursday, February 26, 2015

वारा देवी

कानपुर के एक कस्वे में दो मंजिले घर में ताई , चाची के बच्चों के साथ हम १५ बच्चे रहते थे , पास में ही थाने में ताई की सहेली के पति दरोगा के पद पर पदस्त थे , इसलिए हम लोग कभी -कभी थाने भी जाया करते थे , हमारी खातिरदारी सिपाही किया करते थे , दरोगानी को हम लोग मौसी कहते थे , बड़ी घमंडी थीं , उनके बेटे का नाम विजय था हम उससे बात नहीं करते थे , वहां से करीब ६ किलोमीटर दूर वारा देवी का मंदिर था , नव दुर्गा के समय वहां मेला लगता था , सब लोग पैदल ही वहां जाया करते थे , इसबार ताई के साथ माँ भी चलने को तैयार हो गईं , यातायात के कोई साधन नहीं थे , जंगल में लोग जाया करते थे ,

कभी मेला नहीं देखा था इसलिए हम लोग बहुत ही उत्साहित थे , कोई थकन भी नहीं लग रही थी , सभी लोग देवी की पूजा के लिए सामग्री ले जा रहे थे , कहीं खाने की चीजें बिक रही थीं कहीं घर ग्रहस्ती की वस्तुएं बिक रही थीं , किसी ने अपनी जीभ में आर -पार तार डाल रखा था , कोई पीठ पर कोड़े बरसा रहा था , क्या अजीब सा मेला था , वो सब देखकर हम लोग व्याकुल हो गए और पिताजी से घर जाने के लिए बोलने लगे , देवी जी के पास दर्शन किये तो वहां पुजारी जी सभी को भस्म लगा रहे थे , हम आश्चर्य से सब देख रहे थे , आस्था का पर्व चल रहा था , श्रद्धा और भक्ति का पर्व था , मिठाइयों , खिलौनों का जश्न हम बच्चों के लिए था ,

आज सभी सुविधाएँ देवी जी के स्थल तक जाने के लिए हैं , लोगों की आस्था बदली नहीं है , आज भी हजारों लोग जाते हैं , हम बुड्ढे हो गए पर वारा देवी का मेला हमारी यादों में आज भी लगता है।

विद्या शर्मा 

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